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भाषण : डर्बनके भोजमें

सबसे पहले मैं उनसे एक आहत-सहायक-दल (एम्बुलेंस कोर) बनाने सम्बन्धी अपना प्रस्ताव लेकर मिला था, किन्तु उन्होंने एक सैनिक होने के नाते जैसा कि स्वाभाविक था, मुझे हतोत्साह कर दिया था। उन्होंने सावधानीसे विचार करनेकी सलाह दी थी। मैं वहाँसे दुरुस्त मिजाज लेकर निकला, लेकिन फिर एक अन्य मित्रके पास गया । मुझे यह पता नहीं था कि वह मित्र सैनिक हैं या नहीं, लेकिन में यह जानता था कि वह साम्राज्य- भक्त हैं और मेरे लिए उसके हृदयमें स्थान है। वह मित्र थे श्री लॉटन । उनकी आँखें खुशीसे चमक उठीं, क्योंकि उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी कि कोई भारतीय इस प्रकारका प्रस्ताव रख सकता है। उन्होंने कहा कि जेम्सनने जो-कुछ कहा है उसकी परवाह मत करो, और अपना प्रस्ताव सरकारके सामने रखो। मैं (श्री लॉटन) कोशिश करूंगा कि वह उसे स्वीकार कर ले । न भी करें तो भी तुम्हारे इस प्रस्तावसे नेटालके उपनिवेशियोंकी नजरमें तुम्हारे देशवासियोंकी इज्जत बढ़ जायेगी। इस एक बातने हमारे भाग्यका निर्णय कर दिया। मैंने प्रस्ताव किया, किन्तु वह रद कर दिया गया। तब मैं डॉ० बूथके पास गया जो उस समय सेंट एडंस मिशनके प्रधान थे और उनसे अनुरोध किया कि वे हमें प्राथमिक चिकित्साकी शिक्षा दें। उन्होंने एक कक्षा चलाकर हमें तीन या चार सप्ताह तक उसकी शिक्षा दी। हम शिक्षा लेते रहे। सेवाएँ अर्पित करनेवालोंमें ज्यादातर उपनिवेशमें जन्मे भारतीय थे। उस समय हम सबको यह भय था कि शत्रु, जो अब ब्रिटिश साम्राज्यके मित्र हैं, मैरित्सबर्गपर चढ़े आ रहे हैं और शीघ्र ही डर्बनका बन्दरगाह भी ले लेंगे। हमने फिर आशा बाँधकर अपना प्रस्ताव सामने रखा । डॉ० बूथ नेटालके बिशपके पास गये जिन्होंने हमारी और सिफारिश की और उनका इतना आग्रह रहा कि अन्तमें हमारा प्रस्ताव न केवल स्वीकार कर लिया गया बल्कि हम एक बहुत ही अच्छी कोटिके डोली-वाहक दलका संगठन करने में सफल हुए और उसने, जैसा कि आप सबको ज्ञात है, अपना तुच्छ कर्त्तव्य निभाया। श्री गांधीने कहा कि इस विषयपर इतने विस्तारसे चर्चा करनेके पीछे मेरा मंशा अपने यूरोपीय मित्रोंको अपनी नम्र श्रद्धांजलि अर्पित करना है और यह बताना है कि उस अवसर- पर और बादमें भी अनेक अवसरोंपर भारतीयों और यूरोपीयोंके बीच सहयोगपूर्ण तादात्म्य और पूर्ण मैत्रीको भावना रही थी, और उस समय भी हमारे साथ यूरोपीयोंकी सहानुभूति थी, उनमें हमारे मित्र थे । ऐसी सुखद स्मृतियाँ मनमें हैं, इसलिए मैं अत्यन्त भारी मनसे दक्षिण आफ्रिका छोडूंगा। उपर्युक्त घटनाके उल्लेखसे मेरा एक उद्देश्य अपने देशवासियोंको यह बताना भी है कि यदि वे अपने अधिकारोंके लिए शोर मचाते हैं, यदि वे अपने अधिकारोंके अतिक्रमणका विरोध करना चाहते हैं तो उन्हें राज्यके नागरिकको हैसियतसे अपने उत्तरदायित्वोंका भी ध्यान रखना जरूरी है। वह अवसर एक ऐसा ही अवसर था कि जब भारतीय समाजने अपने उत्तरदायित्वको स्वीकार किया, और यद्यपि हमारी संख्या केवल कुछ हजार ही थी फिर भी जो-कुछ हमारे वशमें था हमने किया।

१. देखिए खण्ड ३ पृष्ठ १३८-३९ ।