पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 12.pdf/४८७

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४४९
भाषण : ढेड़ों द्वारा आयोजित स्वागत समारोहमें

रहनेको कहा; और आश्वासन दिया कि इसके बदलेमें वे संसारमें जहाँ-कहीं भी होंगे अपने उन देशभाइयोंको नहीं भूलेंगे जिनके साथ वे दक्षिण आफ्रिकामें रहे और जिन्होंने उनपर इतना स्नेह बरसाया। उन्होंने कहा, में परमात्मासे प्रार्थना करता हूँ कि वह मुझे बल दे कि मैं भी अपने देशभाइयोंपर ऐसा ही स्नेह कर सकूँ। परमात्मा ही मुझे जानता है और मेरे हृदयमें क्या है सो देख सकता है। सम्भव है मेरा प्रेम ज्ञानयुक्त रहा हो, सम्भव है वह अज्ञानयुक्त भी रहा हो और इसके अनुसार मैंने अपने देशवासियोंकी सेवा अथवा कुसेवा भी को हो। यदि कोई कुसेवा बन गई हो तो ईश्वर परम दयालु है, वह मुझे क्षमा कर देगा। परन्तु अपने देशभाइयोंके प्रति मेरे प्रेममें और स्नेहमें कोई कमी रह गई हो और मुझसे अपने देशभाइयोंकी ठीक सेवा न बन पड़ी हो तो वे भी मुझे क्षमा करें। अपनी तरफसे में इतना अवश्य जानता हूँ कि मैंने जो कुछ भी किया है अथवा करनेका प्रयास किया है वह अपने हृदयके अन्तस्तलसे किया है। अवश्य, मुझसे भूलें भी जरूर हुई हैं। परन्तु मेरे देशभाई मुझे क्षमा करें। और यदि आप देखे कि मेरे मनमें देशभाइयोंके प्रति प्रेमका लेश भी है तो आप परमात्मासे प्रार्थना करें कि मेरे हृदयका प्रेम खूब बढ़े और मेरे देशभाइयोंने घोरसे-घोर संकटकालमें मुझपर जो स्नेह दिखाया है, हृदयकी जो विशालता मेरे प्रति प्रकट की है और मेरे सब दोषोंको जिस तरह सह लिया है उसके तुच्छ बदलेके रूप में मेरा यह प्रेम आप तक पहुँचता रहे।

[ अंग्रेजीसे ]

इंडियन ओपिनियन, २-९-१९१४

३५७. भाषण : ढेड़ों द्वारा आयोजित स्वागत समारोहमें

[ डर्बन

जुलाई ९, १९१४]

श्री गांधीने बताया : आज प्रातःकाल ढेड़ जातिके कुछ सज्जन निमन्त्रण देने आये थे किन्तु उस समय मुझे इस बातकी जानकारी नहीं थी कि वे किस जातिके हैं; दूसरे, समयकी भी कमी थी अतः मैं निमन्त्रण स्वीकार नहीं कर सका। पर यदि मैं यह जान पाता तो अवश्य ही तुरन्त उपस्थित होनेके लिए तैयार हो जाता। आजकल इस जातिसे मिलकर मुझे गर्व होता है। ये सब अपने ही भाई हैं। इन लोगोंकी तरफ जरा भी हलकी नजरसे देखने में हमारा अपना ही ओछापन प्रकट होता है। इतना ही नहीं ऐसा करना अधर्म भी है। क्योंकि यह भगवद्गीताकी शिक्षाके विरुद्ध है।

इसके बाद श्री गांधीने समझाया कि बच्चोंके लिए अक्षर-ज्ञानकी अपेक्षा चारित्रिक शिक्षाकी अधिक आवश्यकता है। भले ही पढ़ाई थोड़ी हो पर हो विवेकपूर्वक। तभी awशिक्षा सार्थक होगी

[ गुजराती से ]

इंडियन ओपिनियन, १५-७-१९१४

१२-२९