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१२. वैवाहिक उलझन

विवाहके प्रश्नपर सर्वोच्च न्यायालयकी नेटाल प्रान्तीय शाखाके मास्टरका पत्र,और उसपर ली हुई वकीलकी सम्मति --दोनोंको अन्यत्र प्रकाशित किया जा रहा है।[१] इन दोनोंसे स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय समाजके सामने जो समस्या है, वह कितनी महत्त्वपूर्ण है। मास्टर स्वयं भी अपने रुखका पूरा महत्त्व समझता है, और इसीलिए उसने मृत व्यक्तिकी वसीयतके यूरोपीय प्रबन्धकर्ता (एक्जीक्यूटर) को सुझाव दिया है कि वस्तुस्थितिके निर्धारणके लिए मामलेका सर्वोच्च न्यायालयमें पेश किया जाना ठीक होगा। भारतीय समाजके लिए गैर-ईसाई पद्धतिसे हुए भारतीय विवाहोंकी दृष्टिसे कानून में संशोधन करना कितना आवश्यक है, यह बात जितने स्पष्ट रूपमें इस मामलेसे प्रकट हुई है, उतनी अन्य किसी बातसे सम्भव नहीं थी।

हालमें जोहानिसबर्ग में हुई विशाल सभामें जो प्रस्ताव पास किये गये थे उनके बारेमें श्री काछलियाको सरकारका जो उत्तर मिला वह जाहिरमें तसल्लीबख्श है।उसने श्री काछलियाको और उनके जरिये भारतीय समाजको आश्वासन दिया है कि सर्लके फैसलेके बावजूद सरकारका इरादा अभी तक प्रचलित प्रथाको तोड़नेका नहीं है। हम इस आश्वासनको स्वीकार करते है, पर इसका कोई ज्यादा मूल्य नहीं है। महत्त्वपूर्ण मामलों में, किसी वास्तविक कानूनी स्थितिके विपरीत पड़नेवाले आश्वासनोंसे कोई राहत नहीं मिल सकती। क्योंकि प्रस्तुत मामले में समस्या प्रतिवर्ष चन्द' भारतीय पत्नियोंको संघमें प्रवेश करानेकी नहीं, बल्कि यह मालूम करनेकी है कि भारतीय स्त्रियोंका दर्जा सिद्धान्त-रूपमें क्या है। साफ शब्दोंमें कहें तो सर्ल-फैसलेने उन्हें धर्म-पत्नीत्वके सम्माननीय दर्जेसे उतार कर रखैलका दर्जा दे दिया है। अब कानूनकी निगाह- में श्रीमती काछलिया, श्रीमती नायडू, श्रीमती कामा और श्रीमती गांधी रखैलें है, और उनके बच्चे अपने माता-पिताओंकी भद्र और प्रिय पुत्र-पुत्रियाँ नहीं, बल्कि अवैध सन्तानें है । यदि कानून उनके प्रियजनोंको समाजका कोढ़ माने और सरकार इनायत फरमा कर वैसा न माने, तो इन लोगोंको इस बातसे क्या सन्तोष मिल सकता है? यह तो हुई सवालके भावना-पक्षकी बात, जो हमारे लिए सबसे अधिक वास्तविक है। अक्सर ऐसा होता है कि जो चीज भावनाको चोट पहुँचाती है वही उसका वास्तविकतापर भी आघात करती है। जो हो, विवाहके प्रश्नकी स्थिति यही है। जनूबीका मुकदमा[२] हमारे आशयको स्पष्ट कर देता है। सरकारकी कृपा-भावनासे गरीब विधवाको कोई राहत नहीं मिलती। सर्वोच्च न्यायालयके मास्टरको यह विवेकाधिकार नहीं है कि जिस कानूनका पालन कराना है, उसे कार्यान्वित करनेके अतिरिक्त वह कुछ और करे। जबतक सर्ल-फैसला कायम है, तबतक उसे [ मास्टरको] जनूबीको

  1. १. इन्हें यहाँ नहीं दिया जा रहा है।
  2. २. देखिए, “जनूवीका मामला", पृष्ठ १८-१९ ।