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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मौजूदा हकों में अड़चनें आने लगीं। इसीलिए चौथी बार फिर सत्याग्रह शुरू करना पड़ा। स्वाभाविक था कि हमने इस बार और भी कुछ माँगें कीं। और अब कहीं सरकारने ये सारी माँगें मंजूर की हैं और इस प्रकार संघर्षका समापन हो पाया है।

इस सबसे, यदि हम देखना चाहे तो यह देख सकते हैं कि सरकारने जब-जब [ हमारे साथ ] धोखा किया तब-तब उसे हमें अधिक अधिकार देने पड़े। इसीलिए यह कहावत है कि 'दगा किसका सगा'। धोखेबाजी तो तभी छिपी रह सकती है जब दोनों पक्ष थोड़ी बहुत धोखाधड़ी करते हों। पर सत्याग्रहमें तो धोखा एकपक्षीय ही हो सकता है; सत्याग्रही तो धोखा कर ही नहीं सकता।

सत्याग्रहसे दूसरी यह बात भी समझमें आ सकती है कि ज्यों-ज्यों संघर्ष बढ़ता गया, लोगोंकी ताकत भी बढ़ती गई और साथ ही उनकी कष्टसहिष्णुता भी । और वह इस हद तक कि पिछले वर्षके अन्तमें जैसी कुछ मसीबतें हमने झेली आजके इतिहासमें उनके मुकाबले में पेश करने योग्य कोई उदाहरण नहीं मिल सकता। और ज्यों-ज्यों हमने कष्ट उठाये त्यों-त्यों हमें राहत मिलती गई। इससे प्रकृतिका एक दूसरा अटल सिद्धान्त भी प्रतिष्ठित होता है कि मनुष्यको उतना ही सुख प्राप्त होता है जितना दुःख वह उठा पाता है। जमीनको ऊपर-ऊपरसे छीलनेवालेके हाथ निरी घास ही आयेगी, [पुष्ट ] अन्नकी फसल तो जमीनकी गहरी जुताई करनेवाला ही पायेगा। अतः बिना दुःख उठाये सुखकी आशा करना दुराशामात्र है । संसारमें तपश्चर्या, फकीरी आदि इसी प्रकार सुप्रतिष्ठित हुए हैं और इसी प्रकार उनकी महत्ता गाई गई है।

समाजने दुःख उठाकर जो-कुछ हासिल किया है उसे सुरक्षित भी दुःख सहन करनेकी शक्तिको अक्षुण्ण रखकर ही बनाया जा सकेगा और इसी प्रकार उसमें वृद्धि भी की जा सकेगी। और यदि यह शक्ति जाती रही तो जो हासिल किया है सो तो जायेगा ही, कुछ और भी चला जायेगा। यह बात समझमें तो सहज ही आ जाती है; परन्तु अनेक बार हम उसे भूल जाया करते हैं।

कानून

अब हमने जो कुछ हासिल किया है उसकी जाँच करें। इस नये कानूनमें दो बातोंका समावेश होता है। प्रथम तो यह कि तीन पौंडी कर रद हो गया। जिन लोगोंपर इस करकी रकम चढ़ गई थी वह भी माफ कर दी गई। इस विषय में 'मर्क्युरी' आदि पत्रोंने अपनी टिप्पणीमें कहा है कि लेने जाकर हम लोग खो आये हैं क्योंकि सरकारने कर तो हटा दिया है पर उसके बदलेमें या तो बेचारे गिरमिटियोंको यह मुल्क छोड़ना पड़ेगा या फिर उन्हें सदाके लिए गिरमिटमें बँधा रहना पड़ेगा। परन्तु ऐसी शंका करना निराधार है, स्वयं जनरल स्मट्सके पत्रसे यह बात स्पष्ट हो जाती है। दूसरी बात है विवाहोंके बारेमें। यों यह हल कुछ इस प्रकार फलित हुआ है कि इसमें हमें अपनी मांगोंसे कुछ अधिक ही मिला है, कम नहीं। इस कानूनके कारण हमारी स्थिति अब बिलकुल स्पष्ट हो चुकी है जबकि न्यायमूर्ति सर्लके निर्णयसे पूर्व उसको केवल मान्यता ही प्राप्त थी । न्याय- मूर्ति सर्लके निर्णयसे पूर्व हमें यह कहना था कि स्थानीय कानून सभी धर्मोके एक पत्नीवाले विवाहोंको मान्य करता है और उसमें हमारे धर्मसम्मत विवाहोंका भी समावेश हो