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३४३. पत्र : ई० एम० जॉर्जेसको

केप टाउन

जून ३०, १९१४

प्रिय श्री जॉर्जेस,

आपका आज ही की तारीखका लिखा पत्र प्राप्त हुआ। इसमें आपने उस मुला- कातका सारांश दिया है, जो जनरल स्मट्सने अनेक आवश्यक कार्यों में व्यस्तताके बावजूद पिछले शनिवारको मुझे देनेकी कृपा की थी। मेरे द्वारा पेश की गई कुछ बातों- पर विचारके समय मन्त्री महोदयने जिस धैर्य और शिष्टताका परिचय दिया उसके लिए मैं हृदयसे कृतज्ञ हूँ।

भारतीय राहत विधेयक (इंडियन्स रिलीफ बिल) के पास हो जाने और इस पत्र- व्यवहारके कारण सत्याग्रहकी वह लड़ाई अन्तिम रूपसे समाप्त हो गई जो सितम्बर १९०६ में शुरू हुई थी और जिसके कारण भारतीय समाजको काफी शारीरिक कष्ट और आर्थिक हानि और सरकारको काफी चिन्ता और परेशानी उठानी पड़ी।

जैसा कि मन्त्री महोदयको मालूम है, मेरे कतिपय देशभाई चाहते थे कि मैं इससे अधिक अधिकारोंकी माँग करूँ। वे इस बातसे असन्तुष्ट हैं कि विभिन्न प्रान्तोंके व्यापार परवाना कानूनों, ट्रान्सवाल स्वर्ण-कानून, ट्रान्सवाल कस्बा- कानून तथा १८८५ के ट्रान्स वाल कानून संख्या ३ ऐसे परिवर्तन नहीं किये गये जिनसे कि भारतीयोंको अधिवास, व्यापार तथा जमीनके स्वामित्वके पूर्ण अधिकार मिलते। कुछ लोग इसलिए असन्तुष्ट हैं कि पूर्ण अन्तर्प्रान्तीय आवागमनकी अनुमति नहीं दी गई, और कुछ इसलिए असन्तुष्ट हैं कि विवाहके सवालपर राहत विधेयक जितनी हद तक जाता है उससे आगे क्यों नहीं गया। मुझसे कहा गया है कि सब विषय सत्याग्रहकी लड़ाईमें शामिल किये जा सकते हैं। मैं उनकी इच्छाओंकी पूर्तिमें असमर्थ रहा। इसलिए यद्यपि ये मांगें सत्याग्रहके कार्यक्रम में शामिल नहीं की जा सकीं, फिर भी इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि किसी-न-किसी समय इन बातोंपर सरकारको सहानुभूतिपूर्वक विचार करना ही होगा। जबतक अधिवासी भारतीय आबादीको पूर्ण नागरिक अधिकार नहीं दे दिये जाते, पूरे सन्तोषकी आशा नहीं की जा सकती। मैंने अपने देशभाइयोंसे कहा है कि उन्हें धीरज रखना होगा और सभी सम्मानपूर्ण साधनोंसे, जो उन्हें उपलब्ध हैं, जनमतको इस प्रकार शिक्षित करना होगा कि उस समय जो भी सरकार हो वह वर्तमान समझौतेकी शर्तोंसे आगे जा सके। मैं आशा करूँगा कि जब दक्षिण आफ्रिकाके यूरोपीय इस तथ्यको भली-भाँति समझ लेंगे कि अब भारतसे गिरमिटिया मजदूरोंका

१. देखिए परिशिष्ट २६।

२. स्वर्ण कानून और १९०८ के कस्वा अधिनियमके अन्तर्गत समस्त स्वर्णं-कानून क्षेत्रोंमें भारतीय लोग बस्तियोंके अलावा अन्यत्र कहीं भी नहीं रह सकते थे और न व्यापार ही कर सकते थे।