अच्छी तरह समझने लगे थे। उसके अन्दर कानूनके विरोधकी या निराशाकी भावना थी ही नहीं; बल्कि मुझे तो सदैव ही यह प्रतीति बनी रहती थी कि हिंसात्मक पद्धति- योंकी अपेक्षा यह नई पद्धति मनुष्यसे कहीं अधिक साहस और कष्ट सहनकी अपेक्षा रखती है।
श्री गांधीने कहा कि हमारा आन्दोलन एक अधिक कठिन प्रकारका आन्दोलन था। और अगर उनके देशभाई साथ नहीं देते, साथ देना उनका कर्त्तव्य था, तो हम इसमें सफल नहीं हो सकते थे। मैं तो अपनेको केवल एक निमित्त, और सो भी बहुतोंमें से एक निमित्त मानता हूँ। मैं अपने बहुतसे यूरोपीय हितैषियोंको हार्दिक धन्यवाद देता हूँ। मेरी मान्यता है कि वर्तमान सफलतामें इन मित्रोंकी सहायताका बड़ा हाथ रहा। श्री गांधीने कहा, मुझे याद है कि किस प्रकार ट्रान्सवालमें होनेवाले कष्टकारी कूचके दिनोंमें यूरो- पीय हितैषी मार्गमें जगह-जगह भारतीय जत्थेसे आकर मिलते थे और उसे प्रोत्साहन देते थे तथा ठोस मदद भी करते थे। परिस्थितिमें सुधार कराने के लिए सत्याग्रह यद्यपि एक शक्तिशाली साधन है---संसारका शायद सबसे शक्तिशाली साधन--फिर भी अगर भारतीय कौन अपनी माँगोंमें संयमसे काम न लेती और औचित्य तया व्यावहारिकताका ध्यान नहीं रखती तो उसे यह सफलता नहीं मिलती। और यह संयम तबतक आ ही नहीं सका होता जबतक उनमें से कुछ लोग भारतीयोंके अधिकारोंके प्रश्नको यूरोपीयोंके दृष्टिकोणसे न देख सकते।
श्री गांधीने आगे कहा कि मैंने तो अपना लक्ष्य ही यह बना लिया था कि भारतीय प्रश्नोंको उन लोगोंके दृष्टि-बिन्दुसे देखा जाये जो हमारे देशभाइयोंकी नजरमें उनके साथ अन्याय करनेवाले थे। और मेरा खयाल है कि लम्बे अर्सेके प्रयासोंके बाद मुझे इसमें काफी सफलता मिली। विधेयकके बारेमें श्री गांधीने कहा कि उसमें वर्तमान कठिनाइयोंका हल है। मुझे लगता है कि आठ वर्षके संघर्ष के बाद हमारे देशभाइयोंको शान्ति और विश्रान्तिके लिए कुछ समय मिलना जरूरी है। संघ-राज्यकी संसद् विधेयकपर हुए भाषणोंमें राष्ट्रीय और साम्राज्य सम्बन्धी जिस जिम्मेवारीकी भावनाका दर्शन हुआ उससे में काफी प्रभावित हुआ हूँ, और मेरा विश्वास है कि अगर यही भावना आगे भी कायम रही तो यहाँको सरकार अपने भारतीय प्रजाजनोंसे सम्बन्धित शेष प्रश्न भी अवश्य हल कर लेगी। मुझे ऐसा नहीं लगता था कि अभी जो शान्ति प्राप्त हुई है उसे आगे कभी भंग करनेकी जरूरत होगी। उन्होंने कहा, अब इस देशमें भारतीयोंकी भीड़ प्रवेश नहीं करेगी। भगवानका धन्यवाद कि गिरमिटिया मजदूरोंकी प्रथा भी हमेशाके लिए बन्द हो गई है। भारतीय अच्छी तरह जानते हैं कि यहाँ किस जातिका प्रभुत्व और शासन है। यूरोपीयोंके साथ सामाजिक समानताको उन्हें आकांक्षा नहीं है। वे जानते हैं कि उनके विकासका मार्ग भिन्न है। वे तो मताधिकारकी भी इच्छा नहीं रखते। अथवा अगर कहीं यह इच्छा हो भी तो उसका अमल आज ही से हो ऐसी कोई इच्छा किसीके मनमें नहीं है। श्री गांधीका विश्वास था कि जब कभी हमारे देशभाई योग्य होंगे तब