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३३३. पत्र: राजीवभाई पटेलको

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शनिवार, [जुन १३, १९१४]

भाई श्री रावजी भाई,

आपका पत्र आज ही किन्तु इतनी देरसे मिला कि आजकी डाकसे न आपको पत्रका उत्तर ही भेज सकता हूँ और न तार ही किया जा सकता है । तार तो सोमवार ही को करूंगा।

जहाँ माताके स्नेहकी बात हो, और पुत्रके वात्सल्यका प्रश्न हो ऐसे प्रसंगमें किसी तीसरे व्यक्तिका सलाह देना धर्म-संकट जैसा ही है। तथापि मेरी तो सलाह दिये बिना गति नहीं है। आप अपने पूज्य पिताजीके पत्रसे जिस निर्णयपर पहुँचे थे हम उसी समय इसका अन्दाज कर चुके थे कि आपकी माताजीकी भावनाएँ क्या हो सकती हैं। उनका पत्र आनेसे कोई नई स्थिति उत्पन्न नहीं होती। स्नेहको नया उभार जरूर मिला है और स्वभावतः आपके हृदय में प्रेमकी भावना प्रबल हो उठी है। ऐसे में अब यदि आप अपना निर्णय निर्मम बनकर करते हैं, तो आपके प्रेमका यह स्वरूप निर्मल और दिव्य होगा। और आप अपना प्रेम सारे संसारको प्रदान कर सकेंगे। अतः इस दिशा में प्रयत्न किया जा सकता है। मातृ-भक्तिका सही उद्देश्य भी यही है। इससे भिन्न तो स्थूल भक्ति ही होगी जो निरी लौकिक होती है और जो केवल देहसे सम्बन्ध रखती है। जिनमें ऐसी भक्तिसे मुक्त होनेकी बात है सो भजन आप अनेक बार गाया करते हैं। "या संसार असार विचारी" हुए इसकी अन्तर्ध्वनिपर मनन करिये। " जीवका श्वासा तक सम्बन्ध" इसकी अन्तर्ध्वनि क्या है? और स्थानोंसे फीनिक्सकी रहनी में यही अन्तर है कि यहाँ हम जो कुछ पढ़ते हैं उसे जीवन में सुप्रतिष्ठित करनेका प्रयत्न करते हैं । आपका भारत जानेका परिणाम क्षणिक ही होगा। पाँच या १५ दिन बाद सही, रोना तो है ही, अन्तमें तो विछोह ही होना है। ‌ और फिर हम ऐसी जिन्दगी जीना चाहते हैं कि हम अपने पास एक पाई भी न रखें; अतः आपको यह भी सोच लेना चाहिए कि ऐसे प्रसंगों में इस प्रकारका गरीब मनुष्य क्या कर सकता है।

माता-पिताका दर्शन करनेकी आपकी लालसा सदा बनी रहे यह तो श्रेष्ठ बात है परन्तु आज तो उस भावनाको नियन्त्रित करके अपना जीवन वीतराग बनाना ही आपका कर्त्तव्य है। अपने चरित्रके निर्माणके लिए ही आप यह देशनिकाला भोग रहे हैं। आपके लिए तो यह स्थिति वनवासकी है। ऐसा करके ही आप अपने माता-पिताको गौरवान्वित कर सकेंगे। आपका आचार स्वच्छन्द नहीं हो सकता। आपको तो दिनो-

१. यह संसार असार मानकर।

२. जीवने श्वास तणी सगाई।