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३१५. हिन्द स्वराज्य[१]

'हिंद स्वराज्य' मैंने १९०९ में इंग्लैंडसे [दक्षिण आफ्रिका] वापिस आते हुए जहाजपर लिखी थी। किताब बम्बई प्रेसीडेंसीमें जब्त कर ली गई थी इसलिए सन् १९१० में मैंने उसका [अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया। पुस्तक में व्यवत विचारोंको प्रकाशित हुए इस प्रकार पाँच वर्ष हो चुके हैं। इस बीच, उनके सम्बन्धमें अनेक व्यक्तियोंने मेरे साथ चर्चा की है। कई अंग्रजों और भारतीयोंने पत्र-व्यवहार भी किया है। बहुतोंने उससे अपना मतभेद प्रकट किया। किन्तु अन्तमें हुआ यही है कि पुस्तकमें मैंने जो विचार व्यक्त किये थे, वे और ज्यादा मजबूत हो गये हैं। यदि समयकी सुविधा हो तो मैं उन विचारोंको युक्तियाँ और उदाहरण देकर और विस्तार दे सकता हूँ; लेकिन उनमें फेरफार करनेका मुझे कोई कारण नहीं दिखता।

'हिन्द स्वराज्य' की दूसरी आवृतिकी माँग कई लोगोंकी ओरसे आई है, अतः फोनिक्सके निवासियों और विद्यार्थियोंने अपने उत्साह और प्रेमके कारण जब-तब समय निकालकर यह दूसरा संस्करण छापा है।

यहाँ मैं सिर्फ एक बातका उल्लेख करना चाहूँगा। मेरे कानमें यह बात आई है कि यद्यपि 'हिन्द स्वराज्य' लगातार यही सीख देता है कि हमें किसी भी स्थितिमें, किसी भी समय शरीरबलका आश्रय नहीं लेना चाहिए और अपना साध्य सदा आत्मबलसे ही प्राप्त करना चाहिए। लेकिन सीख जो भी रही हो, परिणामकी दृष्टिसे उससे अंग्रेजोंके प्रति तिरस्कारका भाव और उनके साथ हथियारोंसे लड़कर या और किसी तरह मारकर उन्हें भारतसे निकाल देनेका विचार पैदा हुआ है। यह सुनकर मुझे दुःख हुआ। 'हिन्द स्वराज्य' लिखने में यह हेतु बिलकुल नहीं था। और मुझे कहना पड़ेगा कि उसमें से जिन लोगोंने यह निष्कर्ष निकाला है वे उसे बिलकुल नहीं समझे है। मैं स्वयं अंग्रेजोंके या अन्य किसी भी राष्ट्रकी जनता या व्यक्तियोंके प्रति तिरस्कारकी दृष्टिसे नहीं देखता। जैसे किसी महासागरकी जल-राशिकी सारी बंद एक ही अंग हैं उसी प्रकार सब प्राणी एक ही हैं। मेरा विश्वास है कि प्राणिसागरमें रहनवाले हम सब प्राणी एक ही है और एक-दूसरेसे हमारे सम्बन्ध अत्यन्त प्रगाढ़ है। जो बिंदु समुद्रसे अलग हो जाता है वह सूख जाता है, उसी प्रकार जो जीव अपनेको दूसरोंसे भिन्न मानता है वह नष्ट हो जाता है। मैं तो यूरोपकी आधुनिक सभ्यताका शत्रु हूँ और 'हिन्द स्वराज्य' में मैंने अपने इसी विचारको निरूपित किया है। और यह बताया है कि भारतकी दुर्दशाके लिए अंग्रेज नहीं बल्कि हम लोग ही दोषी हैं, जिन्होंने आधुनिक सभ्यता स्वीकार कर ली है। इस सभ्यताको छोड़कर हम सच्ची धर्म-नीतिसे युक्त अपनी प्राचीन सभ्यता पुनः अपनालें तो भारत आज ही मुक्त हो सकता है। 'हिन्द स्वराज्य' को समझनेकी कुंजी

  1. १. यह हिन्द स्वराज्य के दूसरे गुजराती संस्करणकी प्रस्तावनाके रूपमें लिखा गया था। यह पुस्तक मई, १९१४ में प्रकाशित हुई थी। प्रथम संस्करणकी प्रस्तावना और पाठके लिए देखिए, खण्ड १०, पृष्ठ ६-६९ ।