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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


वालेको अपना मंह सूंघनेके लिए कहें और उसकी राय जानना चाहें, तो हमें शरमिन्दा होना पड़गा। ऐसे शौकीन लोग भी है कि जो बढ़िया माल खानेके लिए खानेके बाद तुरन्त ही फूट सॉल्ट पीते है अथवा खाये हुए को उलटी द्वारा निकालकर पुनः पकवान खाने बैठ जाते हैं।

हम सभी कुछ-न-कुछ ऐसे ही हैं। इसीलिए तो हमारे महापुरुषोंने हमारे लिए उपवास, रोज़े आदिके व्रत निश्चित किये हैं। रोमन कैथॉलिक ईसाइयोंमें भी बहुत उपवास होते हैं। केवल शरीरके आरामके लिए मनुष्य यदि प्रति पक्षमें एक दिन उपवास करे या एक समय भोजन करे, तो इससे कोई हानि नहीं होगी; बल्कि बहुत फायदा होगा। चौमासेमें बहुत-से हिन्दू एक बार भोजन करनेका व्रत रखते हैं। ऐसा करने में भी हेतु आरोग्य ही होता है। जब हवामें अधिक नमी हो, सूर्यके दर्शन न हो रहे हों, तो ऐसेमें आँते पूरा काम नहीं कर पातीं। इसलिए ऐसे समयमें मनुष्यको खुराक भी कम लेनी चाहिए।

अब कितनी बार खाया जाये, इसका विचार करें। हिन्दुस्तानमें असख्य मनुष्य केवल दो बार ही भोजन करते हैं। तीन बार खानेवाला मजदूर वर्ग ही हो सकता है और चार बार खानेवाले तो अंग्रेजियतकी हवा बहने के बाद पैदा हुए मालूम होते हैं। हाल ही में अमेरिका और इंग्लैंडमें भी कुछ समितियाँ स्थापित हुई हैं। उनका काम केवल इसी बातका उपदेश देना है कि मनुष्यको दोसे अधिक बार नहीं खाना चाहिए। इन समितियोंकी सलाह है कि हमें सुबहका नाश्ता करना ही नहीं चाहिए। रातको जो नींद ली जाती है, वह भी खुराककी जरूरत पूरी करती है। अत: सुबहके समय हमें खानेके लिए नहीं, बल्कि काम करने के लिए तैयार हो जाना चाहिए। ये लोग ऐसा मानते है कि पहर-भर काम करनेके बाद ही हमें खानेकी बात सोचनी चाहिए। इस प्रकार ये लोग दिनमें दो ही बार भोजन करते हैं। मध्यान्तरमें चाय आदि भी नहीं लेते। इस विषयपर ड्यूवी नामक सुप्रसिद्ध डॉक्टरने एक पुस्तक लिखी है। अपनी इस पुस्तकमें वे बतलाते है कि उपवाससे,नाश्ता न करनेसे और कम खाने आदिसे अनेक लाभ है। ८ वर्षोंसे मेरा अपना अनुभव तो यह है कि युवावस्था गुजर जानेके बाद तो दोसे अधिक बार खानेकी आवश्यकता बिलकुल ही नहीं रहती। मनुष्यकी काठी बँध चुकने और उसके शरीर-की पूरी बाढ़ हो चुकनेके बाद उसे अधिक बार या अधिक मात्रामें खानेकी आवश्यकता नहीं बच रहती।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, ५-४-१९१३