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२८३. पत्रका अंश'

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मार्च १, १९१४के आसपास ]

. . . बच्चेको बचाया। वह बहुत चिन्ता करती है पर उससे लाभ क्या? यदि उसने गुस्सेको पचाया होता, थोड़ा भी विचार किया होता, देखा-भाला होता, तो यह विकट परिणाम न होता। हमें हर कार्यके बारेमें सोचना चाहिए और तब धैर्यपूर्वक उसे करना चाहिए। ऐसा करें तो न हमें कोई धोखा दे सकेगा और न हम किसीकी देखा-देखी ही करेंगे और आगे बढ़ते चले जायेंगे। इसी प्रकार तुम भी दृढ़ बनोगे, तभी किसी प्रकारका पुरुषार्थ कर सकोगे। और तुम्हारा तो यह दुहरा फर्ज है, इसका भी खयाल रखो।

बा की तबीयतके बारेमें कुछ भी नहीं कहा जा सकता। वह खटियासे उठ खड़ी हो, तभी समझो। आज तो वह उठकर बैठना भी चाहती है तो सहारेकी आवश्यकता होती है। प्रायः तो वह नीमका रस ही लेती है। कभी-कभी अंगूर या नारंगी का रस लेती है। पर है वह शान्त । तुम्हें सेवाका सुयोग नहीं मिलता इसकी चिन्ता नहीं करना। इन सबका बदला. . .

गांधीजीके स्वाक्षरों में मूल गुजराती प्रति (सी० डब्ल्यू. ५६५४) से।

सौजन्य : राधाबेन चौधरी

२८४. पत्र : हरिलाल गांधीको

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फाल्गुन सुदी ५ [मार्च २, १९१४]

'चि० हरिलाल,

तुम्हारा पत्र मिला । तुम्हारे प्रत्येक पत्रमें क्षमा याचना और अपने पक्षमें दलीलें, दोनों बातें रहती है। मुझे तो अब यह सब निरा ढोंग लगता है। वर्षोंसे तुम पत्र लिखने में आलसी रहे हो। और वर्षोंसे क्षमा भी मांगते चले आ रहे हो। क्या उम्रभर तुम ऐसा ही करते रहोगे और मैं माफी देता रहूँगा? ऐसी माफीका क्या अर्थ

१. इसका मात्र-दूसरा पृष्ठ ही उपलब्ध है।

२. यह पत्र मार्च १, १९१४ के आसपास लिखा गया जान पड़ता है। गांधीजीने श्री रावजीभाईको १ तारीखको जो पत्र (पिछला शीर्षक) लिखा था, उसमें नेपालको मृत्युकी चर्चा है।

३. पत्रमें गांधीजीके कस्तूरबाके साथ केप टाउनमें होनेका उल्लेख है, इससे लगता है कि यह पत्र सन् १९१४ में लिखा गया होगा।