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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


लगभग तिरस्कार पैदा करती है। परन्तु मृत्युसे डरने की जरूरत नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य जलकर मरता है तो भी अधिक [देर तक] दुःख नहीं भोगता। दुःख असह्य होते ही वह मूछित हो जाता है। जो लोग देहके प्रति विशेष आसक्त होते हैं, वे पीड़ाका अधिक अनुभव करते हैं। आत्म-तत्त्वको पहचाननेवाले लोग मौतसे नहीं घबराते । नेपालकी तरह हजारों लोग, हजारों जीव आज भी हर क्षण जल कर मर रहे होंगे । ब्रह्माण्डमें नेपालकी गिनती भी छोटे जीवोंमें समझिए। जब हम आग जलाते हैं या रातको दीपक उजालते हैं तब क्या नेपालसे भी बड़े कितने ही जीवोंके नाशका कारण नहीं बन जाते होंगे?


ब्रह्मा-जैसे किसी महान जीवकी कल्पना करिए। उसकी दृष्टिमें तो हम चींटीसे भी सूक्ष्म होंगे। उसकी आँखकी परिधि ही इतनी विशाल होगी कि हम उसे मच्छरपिस्सूकी तरह दीख पड़ते होंगे। उसने नेपालको जला दिया तो क्या हुआ? और ऐसा उसने यही मानकर किया होगा कि नेपाल-जैसे क्षुद्र जन्तुओंको उस-जैसे महान् जीवके सुखके लिए जीवित जला देना चाहिए। हमारी दृष्टिमें नेपाल हमारे-जैसा ही प्राणी था, अतः हमें उसपर दया आती है और भय होता है कि कहीं हमारी गति भी ऐसी न हो। लेकिन हम जो दलील, उन चींटी, खटमल, मक्खी आदि असंख्य जन्तुओंके विषयमें बुद्धिमानीपूर्वक देते हैं, जिन्हें हम खाली आँखसे देख भी नहीं सकते, सम्भवत: विशेष बुद्धिवाला ब्रह्मा हमारे सम्बन्धमें ठीक वैसा ही मानकर व्यवहार करता होगा। यदि हम इतना समझ पायें तो नेपाल आदिकी घटनाओंसे हम नीचे लिखी सीख ले सकते हैं:

१ . हम स्वयंपर दया करें और सारे प्राणियोंको अपने ही जैसा समझकर उनपर दया करें और अपने सुखके लिए किसी भी प्रकारकी हिंसासे बचें।

२. शरीरके प्रति आसक्ति न रखें और मत्यका तनिक भी भय न मानें।

३. यह देह अत्यन्त क्षणभंगुर है, यही विचार करके इसी क्षण मोक्षके साधन जुटाने में लग जायें।

यों कह जानेमें ये तीनों ही सूत्र बड़े सहज है, किन्तु मनन करनेपर ये कठिन है और मननके बाद इन्हें जीवनमें उतारना तो खाँड़की धारपर चलने के समान है।

अभी सुबहका समय है। विचारोंका प्रवाह इसी धारामें बहता चला जा रहा है, क्योंकि बा फिरसे बीमार है और मैं उसे मृत्युके भयसे मुक्त करनेके प्रयत्नमें हूँ।

मोहनदासके यथायोग्य

[गुजरातीसे]
जीवन- परोढ