पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 12.pdf/३९१

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३५३
पत्र : मणिलाल गांधीको


रखते हुए हिचकिचाता हूँ वैसे ही तुम-जैसे निर्मल युवकोंको मैं डॉ. गुलके साथ रखते हुए झिझकता हूँ। डॉ० गुल स्वयं जानते है कि वे भी निरे बालक है और अपने दोषोंको पहचानते हैं, इसी कारण उन्होंने अपने सगे भाईको अपनसे दूर रखा है। ... उद्धत और रागी स्वभावके हैं। तुम भी उनके समान उद्दण्ड और रागी स्वभावके हो जाओ, यह मैं नहीं चाहता। तुममें हंसकी विवेक-बुद्धि नहीं है। अगर वह होती तो मुझे इतनी सख्त बातें कहनेकी कोई जरूरत ही न पड़ती। तुम्हारे प्रति मेरे मनमें जो अत्यधिक स्निग्धता है, वही तुम्हें इसबार जलानेवाली प्रतीत हुई। ऐसा होता ही है। अब तुम शान्त हो जाओ। मैंने बिना सोचे-समझे कदम नहीं उठाया है। तुम मुझपर वकीलकी तरह बहस करनेका जो आरोप मढ़ते हो, सो उचित नहीं है। एक बार पहले भी तुमने ऐसा ही कहा था। मुझे अपने विषयमें ऐसा अनुभव होता जाता है कि विश्लेषण करनेकी और अच्छे बुरेको पहचाननेकी मुझमें विशिष्ट शक्ति है। इसीसे मेरे द्वारा किया गया सूक्ष्म तर्क, सामने बैठे हुए व्यक्तिको, वकालत करने के समान लगता है। फिर भी यदि तुम अपने बचावमें अथवा मेरी भूल सुधारनेके लिए कुछ कहना चाहो तो निश्चिन्त होकर कहना। यह तुम्हारा कर्तव्य है। मेरी आज्ञा है कि तुम मुझे हमेशा पत्र लिखा करो। बा की तबीयत [अभी] वैसी ही है। खतरा टला नहीं है।

बापूके आशीर्वाद

[गुजरातीसे]
जीवन- परोठ

२७६. पत्र : मणिलाल गांधीको

[केप टाउन
फरवरी २६, १९१४के आसपास ]

...'मेरे ऊपर निर्दयताका आरोप लगाकर तुमने अनजानमें ही पाप किया है।... मैं पन्द्रह दिनके अन्दर ही निर्दय बन गया? ऐसा दूसरोंको तो नहीं लगा। फीनिक्समें भी किसीको ऐसा नहीं लगा। बा का तो कहना है कि मैं उसके प्रति अत्यन्त कोमल बन गया हूँ। अगर मैं तुम्हारे प्रति निर्दय बन जाऊँ तो मुझमें यदि कोई साधुता है तो वह जाती रहेगी और मैं समझंगा कि मेरा जीवन व्यर्थ ही गया। लेकिन अभी फिलहाल, मैं तुम्हें निर्दय जान पडूंगा, उसमें कोई सन्देह नहीं।. . ." जिस मोहके वशीभूत होकर मैं तुमपर छाये हुए मोहको देखने में असमर्थ रहा वह अब नष्ट हो गया है और [उसके स्थानपर] केवल निर्मल प्रीति रह गई है। वह प्रीति अभी तुम्हें निर्ममता ही जान पड़ेगी क्योंकि मुझे एक वैद्यकी भाँति तुम्हें कड़वी औषधि पिलानी पड़ रही है। मैं तुम्हें...पूर्ण बनाने के लिए अधीर हो रहा हूँ।

१. मूल सूत्रमें ही यहाँ कुछ शब्द नहीं मिलते।

२. यह पिछले शीर्षक-पत्र : जमनादास गांधीको"-के साथ ही लिखा गया जान पड़ता है।

३, ४, ५, ६. मूल सूत्रमें ही यहाँपर कुछ शब्द नहीं मिलते ।

१२-२३