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आरोग्यके सम्बन्धमें सामान्य ज्ञान [-१४]



इतनी साधारण है कि डॉक्टर न भी लिखें तो भी हम सभी इसे जानते हैं। इस भयसे कि कोई स्वेच्छासे कम खाकर अपनी तबीयत खराब न कर ले, ऐसा कहनेकी आवश्यकता नहीं है कि कमसे-कम इतना तो खाया ही जाना चाहिए। वास्तवमें आवश्यकता तो यह कहनेकी है कि हम सभीको अपनी खुराकपर विचार करके उसे कम कर देना चाहिए।

जैसा कि ऊपर बतलाया जा चुका है, भोजनका खूब चबाकर खाया जाना आवश्यक है। ऐसा करनेसे बहुत थोड़ी खुराकसे हम अधिकसे अधिक सत्व प्राप्त कर सकेंगे और उससे हमें हर तरहसे लाभ होगा। यह भी बतलाया गया है कि जो मनुष्य उचित भोजन करता है और जितना पचा सके उतना ही खाता है, उसे दस्त भी थोड़ा, बँधा हुआ, कुछ-कुछ साँवला, चिकना, खुश्क और एकदम दुर्गन्ध-रहित होता है। जिसे इस प्रकारका दस्त नहीं होता, अवश्य ही उसने अधिक खाया है, अनुचित भोजन किया है और जो-कुछ खाया है उसे ठीक ढंगसे चबाकर मुंहमें लारके साथ मिलने नहीं दिया है। इस प्रकार मनुष्य अपनी मल-मूत्र आदि हाजतोंके आधारपर यह कह सकता है कि वह अधिक खाये या कम । जिसकी जीभ सुबह खराब हो,जो बेचैनीसे सोता हो,जिसे रातको स्वप्न आते हों, उसने अधिक खाया है। जिसे रातको पेशाबके लिए उठना पड़ता हो, उसने तरल पदार्थ जरूरतसे ज्यादा पिया है। इस प्रकार सूक्ष्म अवलोकन द्वारा प्रत्येक मनुष्य अपनी-अपनी खुराकका परिमाण तय कर सकता है। अनेक मनुष्योंके श्वासोच्छ्वासमें बू आती है। निश्चित ही ऐसे मनुष्यका भोजन ठीक ढंगसे हजम नहीं हो पाया है। कितनी ही बार ज्यादा खानेवाले मनुष्यको फोड़े हो जाते हैं। उसे मुंहासे फूटते हैं। उसकी नाक भरी होती है। इन सारे उपद्रवोंकी हम उपेक्षा कर जाते हैं। कुछ लोगोंको डकारें ही आया करती हैं और बहुतेरोंको अपानवायु। इन सबका अर्थ तो इतना ही है कि हमारा पेट निरा पाखाना बन गया है और हम सभी अपने संडासकी पेटीको साथ-साथ लिये घूमते-फिरते हैं।हमें यदि अवकाश मिले और इस सम्बन्ध में हम गहरा विचार करने बैठे, तो हमें अपनी इन कुटेवोंके प्रति तिरस्कार हुए बिना न रहेगा और हम भूलकर भी अधिक भोजन नहीं करेंगे। इतना ही नहीं, हम भोजनकी और भोजोंकी बात करना ही छोड़ देंगे। तब हम सामाजिक भोजोंमें शरीक होने और समाजको खिलानेके नियमका कदापि पालन नहीं करेंगे और हमारे आतिथ्य-सत्कारका ढंग ही बदल जायेगा। हम खुद उससे सुखी होंगे और अतिथियोंको भी सुखसे रख सकेंगे। दावतोंका तो नाम ही नहीं लेना चाहिए। दतौन करनेके लिए हम किसीको निमन्त्रण नहीं देते, पानी पीनेके लिए भी नहीं; ठीक इसी प्रकार भोजन भी तो एक शारीरिक व्यवहार ही है। उसे करते हुए इतनी व्यर्थकी खटपट क्यों? मेहमान क्या आये, उनकी और हमारी कमबख्ती आ गई ! सच बात तो यह है कि परम्परामें पड़कर हमने अपने मुंहको बिगाड़ रखा है, और खानेका कोई-न-कोई बहाना ढूंढते रहते हैं। मेहमानोंको खूब खिला-पिलाकर उनके यहाँ डटकर दावत उड़ानेकी उम्मीद रखते हैं। इतना ही नहीं,ऐसे अवसर ढूंढकर हम अधिका- धिक पकवान उड़ानेकी तरकीबें सोचते रहते हैं। इस प्रकार डटकर भोजन करनेके एक घंटा बाद यदि हम किसी शुद्ध और स्वच्छ शरीर