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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


ये शब्द तो भीरुता भरे हैं। बिना कष्टके तो समाज मजबूत नहीं बन पायेगा। आगे बढ़ने में प्रत्यक कदमपर कष्ट होगा ही। जो कुछ उठाना पड़ा है वह कष्ट नहीं है। उसे आवश्यक परिश्रम मानना चाहिए। इस प्रकारके कष्ट हमपर न पड़ें ऐसी इच्छा रखना प्राकृतिक नियमोंके भंग होनेकी कामना करनेके समान है। कोई भी कार्य बिना मेहनतके सफल हुआ हो ऐसा उदाहरण हमने इस पृथ्वीपर नहीं देखा और न इतिहासमें ही पढ़ा है। । अन्तमें भारतीयोंको विचारपूर्वक यह समझनेकी आवश्यकता है कि हम जो माँग पहले कर चुके है उसमें कम-अधिक न करना ही सत्याग्रहका प्रथम सूत्र है। और दूसरा सूत्र यह है कि जो-कुछ सत्याग्रहसे प्राप्त हुआ है वह सत्याग्रहसे ही स्थायी रखा जा सकता है। सत्याग्रहके जरिये मिलने योग्य वस्तु सत्याग्रहके द्वारा अवश्य प्राप्त होती है। सत्याग्रहमें "हार" शब्द है ही नहीं यह इसका तीसरा सूत्र है। यदि इतना समझ लिया जाये तो गलतफहमी दूर हो जाये और समाज बहुत आगे बढ़ जाये; यह हमारा दृढ़ मत है।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, ११-२-१९१४

२६६. पत्र: रावजीभाई पटेलको

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रविवार, [फरवरी ५, १९१४ के बाद]

भाई श्री रावजी भाई,

आपसे मेरा पिछले जन्मका कोई लेना-देना है। नहीं तो मुझे आपका इतना प्यार पानेका क्या अधिकार है ? और फिर जब मैं बड़े संकटमें था तब आपने जो प्रेम दिखाया उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वह आप दोनोंकी आत्माको और भी अधिक तेजस्वी बनाये, यही मेरी कामना है। और आप यह कामना करें कि उस प्रेमके अनुभवसे आत्माकी शक्तिके विषयमें मेरा विश्वास और भी दृढ़ हो। एक जरा-सी प्रतिज्ञा, अर्थात् तपश्चर्याके प्रति आदर भाव यदि इतना सब प्राप्त कर सकता है तो तपश्चर्यापर आचरण करनेसे कितना प्राप्त होगा, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। इस बातको समझना उतना ही सरल है जितना त्रैराशिक-नियमोंको समझना। यह वास्तवमें ऐसा ही है। प्रतिज्ञा न लेता तो मुझे शुद्ध प्रेमका अनुभव नहीं होता, और जितनी जल्दी सत्यका पता चला उतनी जल्दी उसका पता न चलता और बच्चे भी निर्दोष साबित न होते।

१. फीनिक्सकी एक अध्यापिका धैरतबनने कुछ विद्यार्थियों के साथ पकौड़े खाकर आश्रमके नियमोंका उल्लंघन किया था। पयपि गांधीजी के पूछनेपर उसने इस बातको माननेसे इनकार कर दिया, लेकिन जिस दिन पश्चातापके लिए गांधीजीने अनिश्चित काल तक उपवास रखनेका निश्चय किया उसके एक दिन बाद उसने अपने अपराधको स्वीकार कर लिया ।