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हमारो आशाएँ

इस पत्रका मिलना ठीक ही हुआ। जैसा एक व्यक्ति लिखता है वैसा ही बहुतेरे अन्य लोग भी सोचते होंगे, ऐसा हम मानते हैं। लेकिन हमें कहते हुए खेद होता है कि ऐसी आशाएँ सफल नहीं होंगी। क्योंकि हर बातकी तरह सत्याग्रहकी भी एक सीमा तो है ही। उससे कितना ग्रहण किया जा सकता है यह समझ लेना ही सत्याग्रहकी सफलताकी प्रथम सीढ़ी है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सत्यके मार्गसे असत्य प्राप्त नहीं किया जा सकता। हम यदि मांगोंको बढ़ाते है तो यह असत्य होगा। सत्याग्रहसे तो अनेक वस्तुएँ मिल सकती हैं, परन्तु यदि हम अनिवार्य रूपसे सत्यका आग्रह न रखें तो वे कदापि नहीं मिलेंगी। उदाहरणार्थ हमें ट्रान्सवालमें जमीन-सम्बन्धी हक मिलने चाहिए। परन्तु इस संघर्ष में हमारी यह मांग नहीं है, अत: इस अवसरपर हम यह मांग नहीं कर सकते। निकट भविष्यमें भी यह मांग करने योग्य ताकत हमें समाजमें दिखाई नहीं देती। इस बारके सत्याग्रहमें गिरमिटिया भारतीयोंने तो धरती ही हिला दी। इन्हीं के बलसे भारत गूंज उठा। परन्तु इस ताकतसे जमीनके हक प्राप्त नहीं किये जा सकते। मताधिकारके लिए हममें अनेक बातोंकी कमी है। उसे दूर किये बिना मताधिकार मिल भी जाये तो वह निरर्थक है, ऐसा हम मानते हैं। हमें इसमें भी कोई सन्देह नहीं है कि मताधिकारके लिए हमें अभी बहत समय लगेगा। उसके लिए तो स्वयं भारतको स्वतंत्र रूपसे जागत होना पड़ेगा। स्वर्ण-कानन, परवाना आदि बातोंके लिए खण्ड ५ में व्यवस्था है। किन्तु इस खण्डसे भी स्वर्ण-कानून या परवाने की तकलीफें रफा नहीं होंगी। यदि इन बातोंकी हदतक सरकारकी ओरसे हमें ऐसा विश्वास मिल जाये कि इनका अमल न्यायोचित ढंगसे होगा तो यह एक तरीका हो सकता है और हम बिना सत्याग्रह किये ही राहत प्राप्त कर सकते है। रेल आदिके कष्टोंके लिए भी स्वयं हममें दम चाहिए। यदि किसी डिब्बेमें ६ लोग बैठे हों तो सातवाँ व्यक्ति बहादुर होना चाहिए। यदि वह दूसरे डिब्बेकी मांग करे तो कंडक्टरको देना ही पड़ेगा। जबतक हम स्वयं लतियाये जाने के लिए तैयार है तो मारनेवाला तो तैयार बैठा ही है। यदि ऐसी बातों में प्रत्येक व्यक्ति स्वयं खबरदार नहीं रहेगा तो वह कुचल दिया जायेगा और हम कुछ नहीं कर सकेंगे। अलबत्ता पत्र लिखे जा सकेंगे; और यह जवाब भी मिल जायेगा कि "भविष्यम ध्यान रखा जायेगा।" किन्त कंडक्टरोंकी मनमानी फिर भी चलती रहेगी। ये शब्द तो प्रत्येक संघर्षके समय घोषित किये गये है कि "फिर ऐसा मौका नहीं आयेगा, ऐसा संघर्ष बार-बार नहीं होता।" किन्तु १९०७ के संघर्षसे १९०८ का संघर्ष भारी हुआ। उससे भी भारी १९१३ का हुआ। १९०७-८ में जितने लोग जेल गये उससे कहीं बहुत अधिक १९०८-११ में गये। और १९१३ में तो हद ही हो गई। और अब आगे जब कभी संघर्ष छिड़ेगा तो उससे भी अधिक अच्छा छिड़ेगा। यह हमारे ही हाथ में है। हमारे सामने बढ़ियासे-बढ़िया भोजन रख दिया जाये तो भी हम आवश्यकतानुसार ही खा सकते है। यदि अधिक खा लिया जाये तो हानि होगी, और मृत्यु भी हो सकती है। यही बात उचित अवसरकी है। सुअवसर है तो भी हमारी जो मांगें हैं हमें उन्हींको पाकर सन्तोष करना होगा और तभी भविष्यमें आनेवाला मौका इससे बढ़कर होगा। हमारा विश्वास है कि यदि हम अपनी मांगोंमें जरा भी वृद्धि करें तो यहाँ और भारत दोनों ही स्थानों में सहानुभूति खो बैठेंगे। “समाजपर फिर संकट न आये"