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२६४. नाबालिगोंके अधिकार

प्रिटोरियामें हाल ही एक बड़ा महत्वपूर्ण प्रवास-सम्बन्धी मुकदमा हो गया है। प्रवासी-अधिकारीने एक मुसलमान लड़केको प्रवेश करने देनेसे रोक दिया। इस सम्बन्धमें उसने जो अन्य बेतुके कारण बतलाये उनकी तो हम यहाँ चर्चा ही नहीं करना चाहते। हम तो केवल काननी पेचीदगीकी छानबीन करेंगे। प्रवेश निषेधका कारण यह था कि वह बालक मुसलमानी विवाहसे उत्पन्न हुआ था और मुसलमानी विवाहको कानून मान्यता नहीं देता है अतः उससे उत्पन्न सन्तान प्रवेशको हकदार नहीं है। इस निर्णयके विरुद्ध प्रार्थीने अपील दायर की। यह अपील प्रिटोरिया में नियुक्त नये निकायके समक्ष पेश हुई। इससे सम्बद्ध कानूनके खण्डके अनुसार प्रवेशके हकदार पुरुषकी पत्नी तथा उसके वयस्क बच्चे प्रवेश कर सकते हैं। और इस प्रकार प्रवेश पानेवालोंमें कानून द्वारा मान्य एक-पत्नीक विवाह प्रणालीके अनुसार ब्याही गई स्त्री तथा उस व्यक्तिको सन्ताने भी शामिल हैं। अदालतने इस खण्डका अर्थ प्रार्थीके हितमें किया। अदालतकी दलील यह थी, "औरत तो वही प्रवेश पा सकती जो कानूनन विवाहिता हो परन्तु यह नियम नहीं है कि बच्चे केवल उसीके आ सकें। बच्चे तो विवाहित या अविवाहित माता-पिताके भी आ सकने चाहिए। इसमें उन बच्चोंका समावेश आप ही हो जाता है जो कानूनन विवाहित दम्पत्तिके हैं। इसमें उन बच्चोंका प्रवेश निषेध नहीं है जो उन दम्पत्तियोंके हैं जिनका विवाह कानूनन जायज नहीं है पर जो साथ रहते हैं।" इसी दलीलके आधारपर अदालतने अपना फैसला प्रार्थीके पक्षमें दे दिया।

अदालतकी इस दलीलसे हम धोखमें न आयें। यह दलील कोई बहुत वजनदार दलील नहीं मानी जा सकती। यदि अदालतकी यह दलील उचित है तो वह स्त्रियोंपर भी लाग होगी। काननके इस खण्डमें "स्त्री" और इसी प्रकार "बच्चे" शब्दका दो स्थानों में उल्लेख है। अदालतमें एक स्थानपर तो "बच्चे" शब्दका प्रयोग भिन्न रूपसे किया है परन्तु "स्त्री" शब्दका प्रयोग दोनों स्थानोंपर एक-सा ही किया है। ऐसा करते हुए अदालतने जो दलील पेश की है वह यद्यपि ठीक है परन्तु वजनदार नहीं है। अतः अदालतके इस निर्णयसे हम निश्चिन्त नहीं हो सकते। लेकिन अदालतने जो अर्थ किया है वह यदि ठीक ही हो तो हमें स्वीकार करना होगा कि विवाहके प्रश्नको लेकर बच्चोंके सम्बन्धमें हमारी मांगका बल कुछ कम हो जायेगा। बिना विवाहके पैदा हुए बच्चोंको आनेका हक प्राप्त हो जाता है तो उससे सारे हक प्राप्त हो जाते हैं, यह नहीं माना जा सकता।

अदालतका फैसला प्रवासी-अधिकारीको ठीक नहीं जंचा इसलिए उसकी मांगपर मुकदमा सर्वोच्च-न्यायालयमें जायगा। अब वहाँ जो हो जाये तो ठीक । यह मुकदमा प्रवासीअधिकारी यानी सरकार ही ऊपर ले जायगी। अत: इससे साफ जाहिर होता है कि सरकारकी नीति स्पष्ट नहीं है। इतना ही नहीं बल्कि कानूनका अर्थ भी वह सख्त करना चाहती है और इन उपायोंके जरिये हमारा उन्मूलन करना चाहती है। हमें यह