व्यवस्थापकोंको निरंकुश सत्ता दे दी जाये तो अन्याय हुए बिना नहीं रह सकता। न्यायमूर्ति बमका निर्णय उचित है यह नहीं कहा जा सकता। निषेधादेश देनेकी सत्ता तो अदालतको सदा ही है और इसी प्रकारका अवसर पुनः आये तो हम मानते हैं कि मामलेको सीधे ब्लूमफॉन्टीन ले जाना चाहिए। इस बीच सरकारसे लिखा-पढ़ी भी की जानी चाहिए।
दूसरा मामला श्री बीन्सके फैसलेका है। श्री बीन्स अब प्रवासी अपील अदालत छोड़ चुके हैं। जिस विषयपर हम लिखना चाहते हैं यह उनका अन्तिम फैसला है। इस निर्णयमें न्याय किया तो गया है परन्तु यह न्याय अनिच्छापूर्वक किया गया है और भारतीय समाजपर डंक तो मारा ही है। न्यायमूर्ति ब्रूमने अन्याय किया है किन्तु उन्होंने उसे प्रसन्नतापूर्वक नहीं किया है। इस प्रकार न्यायासनपर बैठनेवाले दो व्यक्तियोंके मत भिन्न-भिन्न हैं। श्री बीन्सने जिस तफसीलपर फैसला दिया है, वह साधारण है। इस मामले में प्रार्थीके पास १८९६ का प्रमाणपत्र था। इसी प्रमाणपत्रके आधारपर वह दो बार भारत गया और वापस लौटा। जब वह तीसरी बार आया तब अधिकारीने उसे रोक दिया और इसलिए अपील दायर की गई। बीन्स साहबने अशोभनीय ढंगसे कहा कि प्रार्थी झूठा है; किन्तु उसे निकाल बाहर करनेकी उनकी हिम्मत नहीं हुई। जो मनुष्य दो बार आ-जा चुका है उसे किस प्रकार भगाया जा सकता है ? इस कारण और चूंकि अधिकारीको यह स्वीकार करना पड़ा कि प्रमाणपत्र भी इसी व्यक्तिने लिया था, इसलिए भी बीन्स साहब अपना निर्णय उसके विरुद्ध न दे सके। पक्षमें फैसला देते हुए भी वे कह बैठे कि अधिकारीने जो रोक लगाई वह तो ठीक ही किया। उन्होंने यह भी कहा कि ऐसे मामले तो फौजदारी अदालतमें पेश किये जाने चाहिए। और इसी इरादेसे उन्होंने प्रार्थीके बारेमें सारे प्रमाण सरकारी वकीलके पास भेज दिये हैं। ऐसी विकट है हमारी स्थिति । कानून भी सख्त और उसका अमल भी सख्त; तिसपर नीचेकी अदालतों में सुनवाई होना भी कठिन। इतना सब होते हुए भी इस मामलेका यह नतीजा तो निकल ही सकता है कि जो लोग अपने ही प्रमाणपत्रोंके आधारपर प्रवेश कर चुके हैं उन्हें एकाएक निकाल देने में अधिकारियोंको मश्किल अवश्य पड़ेगी।
इंडियन ओपिनियन, ११-२-१९१४