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प्रवासके महत्त्वपूर्ण मामले


हो जानेसे दूसरा विवाह करनेकी परिपाटी मन्द पड़ जानेकी सम्भावना है। और ऐसा कौन पति होगा जो एक स्त्रीको धर्म-पत्नी और दूसरीको रखैल कहलवाना चाहेगा?

हम ऊपर जो बातें स्पष्ट कर चुके हैं उनसे कम कोई बात स्वीकार करना सम्भव नहीं है। और इससे अधिक पा सकना भी प्राय: असम्भव है। अत: हमारे लेखे अधिक पाने के लिए सत्याग्रह छेड़ना उचित नहीं हो सकता। यदि उपरोक्त सुझावोंके अनुसार माँगें प्राप्त हो सकें तो सम्भव' है हमारे धर्मोका सम्मान बना रहे और सैकड़ों गरीब भारतीयोंके बाल-बच्चे सखी हो सके।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, ११-२-१९१४

२६३. प्रवासके महत्त्वपूर्ण मामले

नेटालमें प्रवास-सम्बन्धी दो महत्त्वपूर्ण मुकदमे हुए हैं। हमें अन्य बातोंके विषयमें लिखना था इसलिए उनके सम्बन्धमें जानकारी देनेका हमे अबतक अवसर नहीं मिल सका था। अब अवसर मिला है। एक मामलेका निर्णय न्यायमूर्ति ब्रूमने दिया है। यह मामला विचित्र है। इसमें तो ऐसा मौका था कि इससे सम्बन्धित भारतीयोंको यह देश बिलकुल ही छोड़ देना पड़ता। परिस्थिति यह थी: प्रार्थी, एक भारतीय, पिछले अक्तूबरमें देशसे आया, उसे प्रवासी-अधिकारीने प्रवेश करनेकी मनाही कर दी। प्रार्थीने उसके विरुद्ध कानूनी कार्रवाही नहीं की। और वह भारत वापस चला गया। जनवरी महीने में प्रार्थी फिर आया। प्रवासी अधिकारीने उसे फिर रोका। इस बार प्रार्थीके वकीलने सर्वोच्च न्यायालयसे निषधादेश प्राप्त कर लिया जिसके परिणामस्वरूप प्रवासी अधिकारी प्रार्थीको प्रवेश न करन देनमें असमर्थ रहा। आखिरकार महान्यायवादीने मामलेकी पूरी जाँच की और उसे पता चला कि प्रार्थीको गलत तरीकेसे निकाल दिया गया था जबकि उसे तो नेटालमें निवासका अधिकार था। महान्यायवादीके इस प्रकार कबूल करनेपर उसे निवासका हक तो मिल गया किन्तु प्रवासी-अधिकारीको निषेधादेश मिलने तक प्रार्थीका जो खर्च हुआ उसे कौन दे, अदालतके सम्मुख इस प्रश्नका निबटारा करना अभी बाकी था। इसका फैसला न्यायमूर्ति ब्रूमने दिया कि प्रवासी अधिकारीके आदेशके विरुद्ध [सर्वोच्च न्यायालयसे] निषेधादेश प्राप्त करनेका अधिकार कानूनमें नहीं है। कानूनके मुताबिक अधिकारीके आदेशका निषेध तो केवल घूसखोरी और भ्रष्टाचारमें ही हो सकता है। इस मामले में यह स्थिति नहीं थी। फिर भी अदालतको यह प्रतीत हुआ कि अधिकारीने प्रार्थीको निकाल बाहर करने में जल्दबाजी और भूलकी है। अत: कानूनके मुताबिक भी यदि निषेधादेश नहीं मिलता तो अन्याय होता और प्रार्थीका हक मारा जाता। अत: अदालतने निर्णय दिया कि खर्च दोनों पक्ष स्वयं आपसमें बाँटकर सहन कर लें। इस निर्णयसे हमारा हित नहीं होता। न्यायालय यदि अधिकारीकी बेहूदा जल्दबाजीको लेकर बीचमें न पड़े तो अधिकारी स्वच्छन्दता और मगरूरीसे मनमाने हुक्म निकालते रहे। जहाँ लोगोंके हकका प्रश्न हो उसमें यदि