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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


अधिनियम प्रवासी अधिकारियोंको ऐसे अधिकार देता है तो जितनी जल्दी उसे संशोधित कर दिया जाये उतना ही सरकार और इस कानूनसे पीड़ित लोगों, दोनोंके लिए, अच्छा होगा।

पर, उपर्युक्त कानूनी कार्रवाइयोंसे भी ज्यादा अमंगलसूचक तो जो चीज़ है वह शायद कठोरताके साथ अधिनियमको लागू किया जाना है। यह स्पष्ट है कि यदि अधिकारियोंने पुनःप्रवेशके इच्छुक लोगोंके प्रति--उन लोगोंके प्रति नहीं जो संघमे प्रवासके इच्छुक थे--अपने कर्तव्यका पालन किया होता तो ये मुकदमे हगिज न उठते। केप और बसूटोलैंडके लोगों के खिलाफ तो, जिन्हें अन्य प्रान्तोंमें जाते समय निरन्तर फ्री स्टेटसे गुजरना पड़ता है, अधिनियमको अमल देने में अधिकारी, निश्चित रूपसे, पागलों जैसा व्यवहार कर रहे हैं। हर बार उनसे अस्थायी परवाना लेनेकी उम्मीद करना उनके ऊपर अनुचित कर लगाना है और परवानोंके लिए प्रार्थनापत्र देनेवालोंको अनावश्यक रूपसे तंग करना है। भारतीय यात्रियोंको कहीं भी बिना रोकटोकके जाने देनेके पुराने रिवाजसे प्रशासनको कभी कोई कठिनाई नहीं होती थी, और उसे ही जारी रखना चाहिये।

एक लड़केके साथ प्रिटोरिया में हुई घटना भी इसी प्रकारकी है। अधिनियमका मतलब कुछ भी हो, यह निश्चित है कि जो लड़का असन्दिग्ध रूपसे अपने पिताका पुत्र है और जिसकी माँ मर गई है, उसे ट्रान्सवालमें प्रवेशका अधिकार है। सरकार प्राय: इस बातके लिए वचनबद्ध है कि कमसे-कम प्रशासनिक रूपसे वह ऐसे बच्चोंको दक्षिण आफ्रिकामें रहनेवाले अपन माता-पिताओंके पास आने दे। प्रिटोरियावाले मामले में अपीलेट बोर्डने अधिनियमकी व्याख्या भी भारतीय प्रार्थीके पक्षमें की है। फिर भी सरकार सन्तुष्ट नहीं है। उसे तो उस अपीलेट बोर्ड के निर्णयोंको भी उलटनेका प्रयत्न करना है जिसे उसीने नियुक्त किया है और जिसे जो अधिकार दिये गये है वे प्रशासन द्वारा पीड़ित लोगोंकी अपेक्षा मुख्यतः प्रशासनका ही बचाव करनेके उद्देश्यसे दिये गये हैं। यह तथ्य कि सरकार अधिनियमकी उदार व्याख्याको चुनौती दे रही है, प्रकट करता है कि वह जिस सख्तीके साथ अधिनियमको अमलमें ला रही है उसी सख्तीके साथ उसकी व्याख्या भी कराना चाहती है। अगर हमें इस देशमें मनुष्यके रूपमें रहना है तो इस कुत्सित भावनाके विरुद्ध हमें लड़ाई लड़नी ही होगी।

[अंग्रजीसे]
इंडियन ओपिनियन, ११-२-१९१४