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२६०. प्रवासी अधिनियम

इस अधिनियमकी व्याख्यासे प्रतिदिन नई कठिनाइयाँ उपस्थित होती हैं। सबसे हालकी व्याख्या दाउद इस्माइल और दया पुरुषोत्तम बनाम प्रवासी अधिकारीके मामले में न्यायमूर्ति ब्रूमके निर्णयमें निहित है। न्यायमूर्ति ब्रूम द्वारा की गई अधिनियमकी व्याख्याके अनुसार जो लोग संघमें प्रवेश करना चाहते हों उनके सम्बन्धमें पिछले सालके अधिनियमके अन्तर्गत प्रवासी अधिकारी द्वारा दिये गये निर्णयपर सर्वोच्चन्यायालय निषेधाज्ञा भी जारी नहीं कर सकता। हम जिस मामलेपर विचार कर रहे हैं उसके सम्बन्धमें यही हआ है। इसलिए यदि न्यायमति ब्रमका निर्णय चलता है, तो जैसाकि प्रस्तत मामले में हआ है, सर्वोच्च न्यायालय छोटे अधिकारियोंकी मर्खताके कारण होनेवाली न्यायकी हत्या रोक सकने में असमर्थ होगा। जैसा कि न्यायमूर्ति ब्रूमने स्वयं कहा, प्रस्तुत मामले में न्यायका उद्देश्य केवल इसीलिए पराजित नहीं हुआ कि अदालतसे अनुचित रूपसे सहायताकी प्रार्थना की गई, बल्कि इसलिए भी हुआ कि निषेधादेश देनेवाली अदालतने अनुचित रूपसे सहायता दी। यदि कानूनका सही अर्थ ऐसा ही है तो प्रत्येक भारतीय पूर्णतः प्रवासी अधिकारियोंकी दयापर निर्भर है। पीड़ित पक्षके लोगोंको अदालत केवल इतनी ही सान्त्वना दे सकी कि उन्हें सरकारी पक्षका खर्च नहीं बर्दाश्त करना पड़ा, यद्यपि उन्होंने मुकदमा अनियमित ढंगसे दायर किया था। यह ठीक है कि अदालतको विवश होकर ही वैसा निर्णय देना पड़ा। परन्तु हम अनन्तकाल तक ऐसी सहानुभूतिपर जीवित नहीं रह सकते, जिसका कोई उपयोगी परिणाम न निकले। यह मामला तो इसी प्रकारके अनेक मामलोंका एक नमूना मात्र है। अधिनियमकी प्रत्येक धारायहाँ तक कि रक्षात्मक धाराएँ भी-ज्ञान अथवा अज्ञानवश, अधिवासी भारतीय जनताको तंग करनेके लिए बनाई गई प्रतीत होती है। फलतः यह कानून व्यवहारमें न केवल भारतीयोंके आव्रजनका निषेध करता है बल्कि संघमें बसी भारतीय आबादीकी कानूनसम्मत स्वतन्त्रता तथा स्वतन्त्र आवागमन में भी हस्तक्षेप करता है।

अधिनियमके अन्तर्गत नेटालके लिए जो अपीलेट बोर्ड बनाया गया था और जो अब खत्म हो गया है, उसने हालमें जिस मामलेका निर्णय किया है उसे ही लीजिए। उसमें श्री बिसने बोर्डका निर्णय सुनाते हुए बड़ी हिचकिचाहटसे एक ऐसे आदमीको राहत प्रदान की जिसके पास पुराने अधिनियमके अन्तर्गत जारी किया गया अधिवासका । प्रमाणपत्र था और उस प्रमाणपत्रसे वह पूर्णतः पहचान लिया गया था। तब यह हिचकिचाहट क्यों थी? किसी भारतीयसे यह क्यों कहा जाना चाहिए कि वह याद करे और बताये कि पन्द्रह साल पहले क्या हुआ था? जायदाद-पत्र एकबार दे देनके बाद फिर उनपर आपत्ति नहीं की जा सकती। वे स्वामित्वके पक्के प्रमाण होते हैं। तब अधिवास-प्रमाणपत्रके साथ दूसरी तरहका व्यवहार क्यों किया जाता है? ये प्रमाणपत्र बाकायदा पूरी छानबीन, और कई मामलोंमें तो बहुत परेशान करनेवाली जाँचके बाद दिये गये थे। अब किस अधिकारसे उनपर ऐतराज किया जाता है ? अगर यह

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