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२५९. देशनिकाला किन्हें होगा?

सत्याग्रह और शरीरबलके बीच, कई बार, ऊपरी तौरसे इतना कम भेद नजर आता है कि हम उसे देख ही नहीं पाते और सत्याग्रही तथा असत्याग्रही यानी शरीरबलके हिमायती, दोनों दुविधामें पड़ जाते हैं। नेटालमें हमने हड़ताल की, वह हमारे हितैषियों एवं मित्रोंमें से अनेकोंको नहीं जंची। उनकी मान्यता रही कि इसमें हम सत्याग्रहकी मर्यादाका उल्लंघन कर रहे हैं। और हाल ही रेलवेके गोरोंने जो हड़ताल की है उसे बहुतेरे भ्रमवश सत्याग्रह मान बैठे हैं। किन्तु उनकी हड़ताल और हमारी हड़तालकी भूमिकाओंमें उत्तर-दक्षिण जैसा अन्तर था और है। हमने जो हड़ताल की उसमें हमारा हेतु सरकारको तंग करनेका नहीं था। हम तो उस मार्गका अनुसरण करते हुए जेल जाकर दुःख भोगना और तपश्चर्या करना चाहते थे और उसका परिणाम भी यह दीख पड़ता है कि हम लगभग जीतके द्वारपर है। हमारी यह जीत भी भिन्न प्रकारकी है। हम कोई राजगद्दी नहीं माँगते। हम तो अपना स्वाभिमान -- अपना धर्म-निबाहना चाहते हैं। हम तो स्वयं अपने आपपर चाहे जितना दुःख पड़े कदापि प्रतिपक्षीको शारीरिक कष्ट देना अथवा उसका पद नहीं छीनना चाहते। रेलवेवालोंकी स्थिति इससे एकदम विपरीत है। उन्होंने अपने स्वाभिमानको रक्षाके लिए संघर्ष नहीं छेड़ा है। धर्मसे उनका कोई सम्बन्ध नहीं तो अपने वेतन आदिको वृद्धि और अपनी आर्थिक स्थितिके सुधारकी बात सोची। उन्होंने जो हड़ताल की वह जेल जानेके हेतुसे नहीं बल्कि सरकारको दबानेके इरादेसे की। सरकार यदि शस्त्र-बलका उपयोग करे और इन हड़तालियोंसे बने, तो वे भी शस्त्रबलसे उसका मुकाबिला करना चाहेंगे। बन पड़े तो वे राजगद्दी छीनकर उसका भी उपभोग करना चाहेंगे। उनका तो अन्तिम उद्देश्य ही यह है। इसीलिए तो वे अपनेसे बढ़कर शरीरबलका प्रयोग कर सकनेवालोंके समक्ष दीन बने हुए हैं। सरकारने भी बेधड़क होकर अदालतों आदिमें ले जाये बिना ही उन्हें गुप्त रूपसे रातोंरात देशकी सीमाके बाहर कर दिया है। और फिर भी सारा जगत् उनके कार्यकी सराहना करता है और उन्हें बहादुर गिनता है। हमें देश-निकाला देनेपर सरकार एकदम जुल्मी कहलायेगी और यदि वह ऐसा करे भी तो उसे हंसते-हँसते सहन करना हमारा कर्त्तव्य होगा। सत्याग्रह और असत्याग्रहके बीच इस प्रकार एक महान् भेद है। हर भारतीयको यह भेद जान-समझ लेना चाहिए। सत्याग्रह कोई हार-जीतकी बाजी नहीं है। उसमें तो हार-जैसी कोई चीज ही नहीं है और शरीरबल तो हार-जीतका खेल है, जिसमें अधिक शक्तिशालीकी ही जीत होती है।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, ४-२-१९१४