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२५८. पत्र: मणिलाल गांधीको

[फीनिक्स]
मंगलवार, [फरवरी ३, १९१४]

चि० मणिलाल,

तुम्हारे दोनों पत्र मुझे मिल गये। तुमसे बात नहीं हो सकी इसका मुझे भी खेद है। मिचें खाईं इसका नि:सन्देह मझे बहत बरा लगा है। यह सम्भव है कि अभी उसका असर मालूम न पड़े परन्तु तामसी भोजनका अनिष्ट परिणाम हुए बिना नहीं रहता, यह ध्यान रहे। अपनी इन्द्रियोंको तुम जीत सकोगे तो भविष्यमें तुम्हें लाभ होगा यह मेरी मान्यता है। मैं यह नहीं देख पाया कि जेलके अनुभवसे तुम्हारी आत्मिक-स्थिति सुधरी हो। तुम्हें विचारवान होनेकी बड़ी जरूरत है। श्री ऐंड्यज़के सम्पर्कमें हो यह तो अलभ्य लाभ है। इस अवसरपर अत्यन्त पवित्र जीवन बिता कर इसका लाभ लो यह मेरी इच्छा है। फिलहाल तो भी ऐंड्रयूज़ तुम्हारे सम्बन्धमें बड़ा सन्तोष व्यक्त करते हैं।

पैसोंका पूरा हिसाब रखना। श्री ऐंड्रयूजका कोई भी काम करते हुए शरमाना नहीं। उनके पाँव भी दाबना। एक बार में दाब चुका हूँ। इसलिए जानता हूँ कि उन्हें यह अनुकूल पड़ता है। उनके जूतोंको पोंछकर उनका फीता बाँधना। मुझे पत्र हमेशा देना चाहिए। इसमें भूल न हो। तुम्हारा मिलना-जुलना किस-किससे होता है और कब क्या काम होता है इसकी दैनंदिनी रखना।

बापूके आशीर्वाद

[पुनश्चः ]

बा की तबीयतके सम्बन्धमें कुछ भी नहीं कहा जा सकता। मेढ और देसाई आज यहीं हैं। लालबहादुरसिंह आदि भी हैं।

गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती प्रति (सी० डब्ल्यू. १००) से। सौजन्य : सुशीलाबेन गांधी

१. गांधीजीने मणिलालको श्री ऐड्यूजके साथ नेटालके दौरेमें (३० जनवरी और ५ फरवरीके बीच) उनका सहचारी बनाकर भेज दिया था। पत्रकी हिदायतोंसे यह उसी प्रसंगमें लिखा गया जान पड़ता है ।