पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 12.pdf/३४४

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३०६
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


भविष्यमें राजनैतिक मताधिकार पाना हो। हमने ये सब बातें महान् राष्ट्रीय महासभाके उस वार्षिक अधिवेशनके बावजूद कही हैं, जो अभी-अभी कराचीमें समाप्त हुआ है और जिसमें पूर्ण औचित्यके साथ यह मांग की गई है-और यह मांग करना उसके लिए लाजमी भी था-कि समस्त ब्रिटिश राज्यमें सम्राट्के प्रजाजनोंको जाति, रंग या मजहबका खयाल किये बिना पूर्ण नागरिक स्वत्व मिले और उन स्वत्वोंपर स्थानीय परिस्थितियोंका प्रभाव न पड़ने दिया जाये और जो पड़ने देना कदापि उचित नहीं है। मेरे खयालसे यह तो सभी मानेंगे कि ये स्वत्व आगे चलकर मिलेंगे ही। यद्यपि सत्याग्रह निश्चय ही उसकी गतिको बढ़ाता है परन्तु इनका प्राप्त होना गति बढ़ानके द्वारा नहीं बल्कि लोकमत शिक्षित करनेके द्वारा सम्भव है। उनका प्राप्त होना इस बातपर भी निर्भर है कि भारतीय समाज ब्रिटिश साम्राज्यकी नागरिकतासे उत्पन्न होनेवाले सभी कर्तव्योंका पालन इस प्रकार करे कि ये स्वत्व उसे अनिवार्य रूपसे प्राप्त हो जायें। अगर मेरी सलाहका कुछ महत्व है तो इस बीच मैं यही सलाह दे सकता हूँ कि भारतीय समाजके प्रयत्न अपने सभी खोये हुए नागरिक स्वत्वोंको या ऐसे अधिकारोंको--जिनसे वह अभीतक वंचित रखा गया है-प्राप्त करनेकी दिशामें केन्द्रीभूत हों। मेरी धारणा है कि अगर हम अपने नागरिक स्वत्वोंकी हानिके खिलाफ सत्याग्रह करने के द्वारा, अपना जोरदार विरोध प्रकट नहीं करते और अगर हम युरोपीय जनताके सामने अपने आत्मत्याग और बलिदानके द्वारा यह नहीं सिद्ध कर देते कि हम अपने आत्मसम्मान और अपनी प्रतिष्ठाको उतना ही महत्व देते हैं जितना कि संसारका कोई भी राष्ट्र-तो यह कदापि घटित नहीं हो सकेगा।

आपका,
मो० क० गांधी

[अंग्रेजीसे]
नेटाल मर्युरी, ३१-१२-१९१३

२३१. हिन्दी और तमिल

सत्याग्रहका संघर्ष जैसा अबकी बार चला और इस समय भी चल रहा है, तवारीखमें शायद ही उसकी मिसाल मिले। उसका सच्चा श्रेय इस देश में बसनेवाले हिन्दी और तमिल भाषा-भाषी भाइयों और बहनोंको है। उनका आत्म-बलिदान सबसे बढ़चढ़ कर है। उनमें से कितने तो गोरे सिपाहियोकी गोलीके भी शिकार बन चुके हैं। उनके सम्मानमें और उनकी स्मृतिके रूपमें हमने इस पत्रमें तमिल तथा हिन्दीमें समाचार देनेका निश्चय किया है। कुछ वर्ष पूर्व हम इन दोनों भाषाओंमें [अपना] अखबार निकालते थे, परन्तु कई अड़चनोंके कारण हमें वह बन्द कर देना पड़ा था। यद्यपि वे अड़चनें आज भी दूर नहीं हो पाई है तो भी जिस कौमके लोगोंने ऐसे संघर्ष में इतना बड़ा आत्म-बलिदान दिया है उसके सम्मानमें-असुविधा उठाकर भी- हमें कमसेकम इतना तो करना ही चाहिए। इसे अपना कर्तव्य मानकर हम इन दोनों भाषाओं में

१. देखिए खण्ड ५,पृष्ठ १९१ ।