२३०. पत्र : 'नेटाल मयुरी' को
डर्बन
दिसम्बर ३०, १९१३
आपके पत्रके आजके अंक में प्रकाशित पहली सम्पादकीय टिप्पणीको पढ़नेपर मेरे लिए यह आवश्यक हो गया है कि मैं उसके उत्तरमें कुछ शब्द कहूँ। आशा है आप मुझे अपना वक्तव्य देनकी अनुमति प्रदान करेंगे।
आपका खयाल है कि अपेक्षित कूचके प्रारम्भ होने में विलम्ब होनेका अधिक प्रबल कारण यह है कि “स्थानीय भारतीय समाजका बहुत बड़ा भाग उस संघर्षमें, जिसमें स्वयं भारतीयोंने बहुत बड़ी क्षति उठाई है, उसके दुबारा चालू होनेपर शामिल होनेको तैयार नहीं दीख पड़ रहा है"। इस देरको लेकर आपने अन्य कई निष्कर्ष भी निकाले है। फिलहाल मैं उनके बारेमें कुछ न कहेंगा। परन्तु मैं आपसे यह बात निश्चित रूपसे कह रहा हूँ कि यदि आपकी यह धारणा है कि कूचके शुरू किये जानेपर-चाहे जब शुरू हो-भारतीय समाज उसमें भाग लेनेको तैयार नहीं दीख पड़ रहा है तो आपको किसीने भ्रान्त कर रखा है। इसके विपरीत, आज जो कठिनाई उपस्थित है वह कूचको विलम्बसे शुरू करनेके कारण ही है, और मुझे तथा मेरे सहयोगियोंको विवश होकर विशेष सन्देश-वाहक भेजने और विशेष पर्चे' बँटवाने पड़ है ताकि लोगोंको मालूम हो जाये कि फिलहाल कूच कुछ अर्सके लिए मौकूफ रखना अत्यावश्यक है। मैं यह मानता हूँ कि यह अनुमान लगाना कि यहाँका भारतीय-समाज कूचमें भाग लेगा या नहीं-व्यर्थ है, क्योंकि निकट भविष्यमें यह बात, अगर सम्भव हुआ तो, सामने आयेगी ही। मैं इस सम्बन्धमें अपनी निजी राय प्रकट कर रहा हूँ ताकि जनता इस मिथ्याभासका शिकार न बन जाये कि यह आन्दोलन भारतीय समाजके कुछ ही लोगों तक सीमित रखा गया है।
इसलिए आपके सौजन्यपर मेरे अतिक्रमण करनेका मख्य कारण आपके पत्रके द्वारा दक्षिण आफ्रिकाकी जनताको यह सूचित कर देना है कि दक्षिण आफ्रिकामें बसे हुए हम भारतीयोंने अनेक बार स्पष्ट रूपसे कहा है कि विवेकशील पुरुषोंकी तरह, स्थानिक परिस्थितियोंका लिहाज रखते हुए अपनी महत्वाकांक्षाओंको सीमित ही रखना हमारा फर्ज है; हमारा फर्ज यह भी है कि हम यहाँ व्यापक रूपसे फैले हुए पूर्वग्रहको-फिर वह कितना ही अनौचित्यपूर्ण क्यों न हो-एक वस्तुस्थितिके रूपमें मान लें और ऐसा मान लेनेपर हमने ऐलानिया तौरपर कहा है-और आपके पत्रके माध्यमसे मैं फिर खुले आम कह रहा हूँ-कि मैं और मेरे सहयोगी किसी ऐसे आन्दोलनमें भाग न लेंगे जिसका लक्ष्य संघमें ब्रिटिश भारतीयोंका अप्रतिबंधित आव्रजन हो या निकट
१. उपलब्ध नहीं हैं। १२-२०