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पत्र : " नेटाल मक्युरी" को


रहे हैं। साथ ही आशा प्रकट की कि संघ सरकार राहत देगी और इंग्लैंड तथा भारत' सहायता करेंगे।

अस्वात
अध्यक्ष

गांधीजीके स्वाक्षरों में अंग्रेजी मसविदे (एस० एन० ५९०२) की फोटो-नकलसे।

२११. पत्र: " नेटाल मर्युरी" को

११०, फील्ड स्ट्रीट
डर्बन
दिसम्बर २३, १९१३

महोदय,

मैं निवेदन करना चाहता हूँ कि सार्वजनिक सभामें रविवारको पास किये गये प्रस्तावों और सरकारको मेरे और मेरे साथियों द्वारा लिखे गये पत्रपर आपने आज सुबहके अपने अग्रलेखमें जो रवैया अपनाया है उससे साम्राज्यका हित नहीं होगा। आपको हमारा तिल तो दिखाई पड़ता है, मगर सरकारका ताड़ नहीं दिखाई पड़ता। मैं यह नहीं मानता कि सार्वजनिक सभामें बोलनेवाले वक्ताओंकी भाषा सख्त या अपमानजनक थी। अपने अधिकारोंपर जोर देनेको ही अपमानजनक समझा जाये तो बात दूसरी है। आप हमें जिस न्यायका हकदार मानते है, सरकार उसे देनेसे केवल इनकार ही नहीं करती, उससे इनकार करनेका उसका तरीका भी अत्यन्त अपमानजनक और तिरस्कारपूर्ण है। आजके पत्रोंमें प्रकाशित अनुप्रेरित तारको ही लीजिए। उसके अनुसार आयोगकी नियुक्ति हमें शान्त करनेके लिए नहीं--हम तो ध्यान देनेके काबिल ही नहीं हैं- बरन् साम्राज्य सरकार तथा भारत सरकारको सन्तुष्ट करनेके लिए हुई है। हमपर आरोप लगाया जाता है कि हम भारतके उग्र-पन्थियोंके इशारेपर चलनेवाली कठपुतलियाँ हैं और झूठमूठका आन्दोलन चला रहे हैं। क्या आप ऐसा समझते है कि हमारी जगह यदि आप होते तो आप किसी भी हालतमें एक ऐसे राहत देनेवाले कानूनका फायदा उठाते जो राहत देनेका दिखावा-भर करता हैं ? मै निवेदन करता हूँ कि यदि हममें जरा भी आत्म-सम्मान बाकी है तो सरकारका रुख जान लेनेके बाद, यदि तारमें व्यक्त रुख ही उसका रुख है, हमने जो निश्चय किया है उससे एक इंच भी पीछे हटना सम्भव नहीं है। हमें शान्ति तबतक नहीं मिल सकती जबतक हम सरकारको हमारी भावनाओंके प्रति अपना तिरस्कारपूर्ण अवहेलनाका रवैया बदलनेपर विवश न कर दें।

हमसे अपनी प्रार्थनामें परिवर्तन करनेकी बात कहकर आप हमसे एक सिद्धान्तका त्याग करनेकी माँग करते हैं। सिद्धान्त यह है कि जिन मामलोंका हमपर खास असर पड़ता है उसमें हमारी सलाह ली जाये। यह एक ऐसी मांग है जिसके लिए हम संघर्ष करते रहे हैं, और अब प्राण तक दे रहे हैं। दूसरी ओर, सरकार हमारी प्रार्थना स्वीकार दे करके हमें हमारा हक ही देगी, और सभ्य संसारकी नजरोंमें उसका सम्मान बढ़ेगा।