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सम्पूर्ण गाँधी वाङ्मय

कैदियोंको बहुत गन्दे कपड़े पहननको दिये जाते थे। यह उनके स्वास्थ्यके लिए हानिकर होता था। जो खाना दिया जाता था वह अब्वल तो पर्याप्त नहीं होता था, दूसरे वह अधपका होता था और साथ ही जंग लगे टीनके तसलोंमें दिया जाता था। कैदियोंका कथन है कि ऐसे भोजनके कारण हममें से बहुतेरोंको पेचिशकी बीमारी हो गई थी। अभीतक उस जेलमें बहुत-से कैदी पेचिशके मरीज हैं। भोजनमें झींगुर तथा छोटे-छोटे कीड़े दिखाई देनपर जब इसकी सूचना अधिकारियोंको दी गई तब यह उत्तर मिला कि जेल कोई होटल नहीं है और होटलोंमें जो भोजन मिलता है उसमें भी कीड़े रह जाते है।

सत्याग्रहियोंमें से अधिकांश सुशिक्षित व्यक्ति हैं। इन्हें पुस्तकें पढ़नेकी आदत है; तिसपर भी उन्हें जेलके पुस्तकालयसे कोई पुस्तक पढ़नको नहीं दी जाती और न उनको अपनी पुस्तकें ही पढ़ने दी जाती थीं।

एतराज किये जानेपर भी जेलके छोटे-बड़े सभी अधिकारी सत्याग्रहियोंको "कुली" कहकर सम्बोधित किया करते थे। सत्याग्रही कैदी इसका जितना ही विरोध करते थे अधिकारी उन्हें उतना ही अधिक "कुली" कहकर पुकारते थे। उनका यह भी कथन है कि जेलका मौजूदा डॉक्टर हमारे स्वास्थ्यकी जरा भी परवाह नहीं करता। इन तीन महीनों में मजिस्ट्रेट केवल एक बार जेल आया। उसने कैदियोंकी फरियादोंको नहीं सुना। भारतीय कैदियोंको पैरोंमें पहनने के लिए सामान्यतया सेंडिलें और मोजे दिये जाते हैं। परन्तु यहाँ अधिकांश कैदियोंको ये चीजें नहीं दी गईं, यहाँतक कि महिला कैदियों तक को नहीं। कई बार ऐसा हआ कि कैदियोंको फी कैदी एक कम्बल-सो भी फटा हुआ-दिया गया। उन्हें अपने वकीलोंसे मुलाकात करनेका अवसर नहीं दिया गया और न उन्हें जेल-निदेशकके नाम पत्र भेजनेकी अनुमति ही दी गई।

मैंने अपने देशवासियोंसे उनकी जो रामकहानी सुनी है उसका यह संक्षिप्त विवरण-मात्र है। इस विषयमें सरकारके पास जो हलफिया बयान भेजे जानेवाले है वे तैयार किये जा रहे है। परन्तु यह मामला बहुत गम्भीर है। इसकी ओर जनताका ध्यान आकर्षित करना आवश्यक है। जो बातें मैंने इस पत्र में लिखी हैं, अतिशयोक्ति नहीं की गई है। और उसे छापनेके पूर्व आप चाहें तो इसे सम्बन्धित अधिकारियोंको दिखा सकते हैं। श्री रुस्तमजी और उनके साथी कैदी इसके अलावा और कुछ नहीं चाहते कि इस मामलेकी बिना किसी लाग-लपेटके पूरी-पूरी, स्वतन्त्र और निष्पक्ष ढंगसे चर्चा और जांच की जाये।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, ७-१-१९१४