पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 12.pdf/३०४

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२६८
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


बात होती, क्योंकि भारतीयोंको हड़ताल करनेकी सलाह देकर मैंने भी उस घटनामें भाग लिया था। इसलिए तो मैं स्वयं ही क्या एक हत्यारा नहीं हूँ? मेरी आत्माने हत्याके अपराधसे तो मुझे मुक्त कर दिया है, लेकिन मैं महसूस करता हूँ कि मुझे उन भारतीयोंके लिए शोक मनाना चाहिए जो मेरे साथी देशवासियोंके लिए एक छोटा-सा उदाहरण होगा। मैं समझता हूँ कि मुझे कमसे-कम संघर्षकी समाप्ति काल तक शोक मनाना चाहिए और सो भी केवल आन्तरिक ही नहीं वरन् बाह्य रूपमें भी। वह साथी-देशवासियोंके लिए उदाहरणस्वरूप होगा और मैं उन्हें यह बता सकूँगा कि उनके लिए अपने आचरण और बाह्य स्वरूपसे यह प्रदर्शित करना बहुत आवश्यक है कि वे शोक मना रहे हैं। किन्तु इसके लिए मैं यूरोपीयोंकी शोकसूचक पोशाक अपनानेको तैयार नहीं हूँ। अपने यूरोपीय दोस्तोंकी भावनाओंका ख्याल करके कुछ परिवर्तनके साथ मैंने एक गिरमिटिया भारतीयको पोशाकसे मिलती-जुलती पोशाक अपना ली है । मैं अपने साथी देशभाइयोंसे अनुरोध करूँगा कि वे संसारको यह दिखानेके लिए कि वे शोक मना रहे हैं, शोकका कोई चिह्न अपना लें तथा आन्तरिक रूपसे भी शोक मनायें। और शायद मेरा आप सबको अपना आन्तरिक शोक मनानेका तरीका बताना ठीक होगा; वह है --दिनमें एक बार भोजन करनेका नियम। उन्होंने आगे कहा कि हम किसी शर्तपर नहीं बल्कि सरकार द्वारा नियुक्त एक आयोगको सिफारिश- पर रिहा किये गये हैं। आयोगकी नियुक्ति इस उद्देश्यसे की गई कि सिर्फ यूरोपीयोंको ही नहीं वरन् भारतीय समाजको भी हर प्रकारको सुविधा हो कि वह आयोगके सामने अपनी बातके सबूत पेश कर सकें। सरकारने आयोगको नियुक्ति की इसे मैं ठीक और उचित बात समझता हूँ, परन्तु भारतीय दृष्टिकोणसे आयोगपर बहुत बड़ी आपत्ति की जा सकती है, और यहाँ मैं अपनी नम्र राय दूंगा कि आयोगको ऐसे रूपमें स्वीकार करना जिसमें भारतीयोंका कोई भी प्रतिनिधित्व न हो, असम्भव है। वे अनेक कष्टोंके लिए संघर्ष कर रहे हैं और संघर्षके पीछे भावना यही है कि सरकार भारतीयोंके हितोंसे सम्बन्धित प्रत्येक बातमें उनकी राय लेनेके अधिकारको पूरी तरहसे मान ले। जबतक सरकार इस हदतक झुकनेको तैयार नहीं, जबतक वह भारतीयोंको भावनाओंको ठीकसे समझने और आदर करनेको तैयार नहीं, तबतक साम्राज्यके वफादार और मानवीय नागरिक होने के नाते भारतीयोंके लिए यह सम्भव नहीं कि वे उन आयोगों या कानूनोंका हुक्म मानें जो उनके सिरपर थोप दिये गये हों। यह गम्भीर सैद्धान्तिक आपत्तियों में से एक है। दूसरी आपत्ति यह है कि आयोग एक वर्गका प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए भारतीय भी इसमें अपना प्रतिनिधित्व चाहते हैं। चाहे यह सम्भव नहीं है तो वे कमसे-कम ऐसे निष्पक्ष लोग तो चाहते ही हैं जिन्होंने अबतक उनके हितोंको पहुँचानेवाले मत व्यक्त न किये हों और जो आयोगके सामने सोचने विचारनेके लिए स्पष्ट, उचित और निष्पक्ष दृष्टिकोण रख सकें। (तालियाँ)। मैं समझता हूँ कि