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हंडीमें मुकदमा

परन्तु संघर्ष रंग तो अब लायेगा। इसमें वे लोग भाग ले सकते हैं जो जेल नहीं जाना चाहते। उन्हें केवल इतना ही संकल्प करना है कि वे स्वयं भूखे रहकर हड़ताल करनेवालोंको भोजन देंगे। भारतसे रुपया आये या न आये, हमारे यहाँसे ही पूरा भोजन जुटाना चाहिए। हड़तालियोंको प्रोत्साहन देना चाहिए और उनसे कहना चाहिए कि उन्हें कोई चाहे जितना मारे-पीटे वे बदले में हाथ न उठायें। इतना तो प्रत्येक भारतीय कर ही सकता है। ऐसा अवसर फिर हाथ नहीं आनेका। प्रत्येक भारतीय यह ठान ले सकता है कि वह दिनमें जितनी बार भोजन करता हो उससे एक बार कम करेगा, और बचे हुए पैसोंसे भूखोंको भोजन दिया करेगा। हर स्थानके व्यापारियोंको चाहिए कि यदि कोई हड़ताली वहाँ आ पहुंचे तो वे उसे भोजन और आश्रय दें और फिर उसे वहाँ भेज दें जहाँ बड़ी तादादमें हड़तालियोंको भोजन देनेकी व्यवस्था है। इस महान् अनुष्ठानमें जो भारतीय यथाशक्ति योग नहीं देगा उसे मैं अभागा मानूंगा।

भारतीयोंका सेवक,
सत्याग्रही
मोहनदास करमचन्द गांधी

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, १९-११-१९१३

१९१. डंडीमें मुकदमा

[डंडी
नवम्बर ११, १९१३]

इसी माहकी ११ तारीखको श्री गांधीपर डंडोके रेजिडेंट-मजिस्ट्रेट श्री जे० उब्ल्यू० क्रॉसकी अदालतमें तीन अपराष लगाये गये जिनमें एक आरोप गिरमिटिया प्रवासियोंको प्रान्त छोड़ देनेके लिए भड़कानेका था। अदालत भारतीयों और यूरोपीयोंसे खचाखच भरी थी। महान्यायवादीकी विशेष हिदायतपर श्री डब्ल्यू डेलजल टर्नबुल सरकारी पक्षकी ओरसे, और एडवोकेट जे० डब्ल्यू० गॉडफे श्री गांधीको ओरसे अदालतमें उपस्थित हुए। श्री गांधीने अपराधोंको स्वीकार किया।

श्री टर्नबुलने अभियोगसे सम्बन्धित कानून पढ़ा और मामला न्यायाधीशपर छोड़ दिया।

श्री गॉडफेने कहा कि मैं प्रतिवादीसे वचनबद्ध हूँ कि चाहे जो हो किसी भी रूपमें सजा कम न करनेकी प्रार्थना करूं। श्री गांधी जिन परिस्थितियोंमें मजिस्ट्रेटके सम्मुख उपस्थित हुए हैं उनसे सब लोग परिचित हैं। मैं तो यह कहकर केवल प्रतिवादीकी इच्छा व्यक्त कर रहा हूँ कि मजिस्ट्रेटको एक कर्तव्य पूरा करना होता है और उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपना कर्तव्य निर्भीकतासे पूरा करे और