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१६०. पत्र: मगनलाल गांधीको

[जोहानिसबर्ग]
रविवार, [अक्टूबर ५, १९१३]'

चि० मगनलाल,

आज मैं तुम्हें कुछ अधिक-सी सामग्री भेज रहा हूँ। उसे पूरीकी-पूरी छापनेके सिवा चारा नहीं है। आजकी सभा बहुत अच्छी हुई। सत्याग्रह निधिमें पौंड २२-७-६ की प्राप्ति स्वीकार करना; "पाटीदार मण्डल (जोहानिसबर्ग ) की ओरसे"-ऐसा लिखना। रिपोर्ट में सारे नाम देने चाहिए। उनसे मैंने कह दिया है कि नाम दिये जायेंगे। जाफर का तार आया है। मालूम होता है कि शायद यही गज्जर है। क्योंकि गज्जरने फिर यहाँ तार भेजे हैं। तुम्हारे उत्साहके सम्बन्धमें मुझे इतना ही कहना है कि अपनी तबीयत सम्भालना। रुस्तमजी सेठसे कस्ती छीन ली गई है. - इस सम्बन्धमें की गई रिपोर्ट वहाँसे ही ली जाये, ऐसा मुझे भी लगता है।

सोलह-वाली टुकड़ी अपनी टेक रखेगी।

मोहनदासके आशीर्वाद

गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती प्रति (एस० एन० ४३६५) की फोटो-नकलसे।

१६१. व्रतका महात्म्य

किसी कार्यको करनेका निश्चय किया जाये और उसे करने में प्राणों तक के जानेकी नौबत आ जाये तो प्राण चले जाने दिये जायें, इसे व्रत कहा जाता है। इस प्रकारके व्रत लेनेकी टेव प्रत्येक मनुष्यको डालनी चाहिए। इससे मनुष्य दृढ़ [मनोवृत्तिवाला] बन सकता है और महान कार्य करने में समर्थ होता है। सरल और सादे व्रतोंके बाद मनुष्य आगे चलकर कठिन व्रत ले सकता है। प्रतीत होता है कि ऐसा ही [कठिन व्रत] कांगोके हशियोंने लिया है। पिछले तीन वर्षोंसे गोरे लोग वहाँके हब्शियोंसे रबर निकलवानेकी जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं। परन्तु उन लोगोंका कहना है कि हमारे बाप-दादोंका यह संकल्प है कि पेड़ोंसे रबर बटोरनेका काम न किया जाये। इसलिए अब वे उस संकल्पको तोड़ नहीं सकते। वचन [पालन] के लिए मनुष्यने अनेक कष्ट भोगे है, इसके अनेक उदाहरण इतिहासमें मिलते हैं। सत्याग्रह धारण करना भी एक महान्व्र त है। जो [व्रत] लिया गया है वह प्राणके साथ ही जा सकता है, यही इसकी खूबी है। इसीसे कहा जा सकता है कि सत्याग्रहमें हार तो होती ही नहीं।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, ८-१०-१९१३

१. इसी तारीखको पाटीदार संघकी सभा हुई थी; देखिए पिछला शीर्षक ।

२ और ३. यह इंडियन ओपिनियन ८१०-१९१३ और १५-१०-१९१३ के अंकोंमें प्रकाशित किया गया था।