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हाजी हुसेन दाउद मुहम्द


ही रहेगा। यह शरीर यदि बेकाम हो गया है तो नष्ट हो जायेगा। रूह तो अमर है। मेरे खयालसे तो तुझे दूसरा, इससे भी भव्य, शरीर प्राप्त होगा और उससे भारतकी अधिक सेवा होगी।" पर हुसेनको इससे पर्याप्त धीरज नहीं आया। वह तो "जो हाथ सो साथ" का विश्वासी था। इसी देहसे वह कुछ करना चाहता था। उसने अपने सत्यका कुछ चमत्कार तो दिखाया था? अब और अधिक कितना दिखाता? दक्षिण आफ्रिकामें आजतक किसीकी भी श्मशान-यात्राको जो सम्मान नहीं मिला था वह हुसेनकी मैयतको मिला। हजारों भारतीय बातकी-बातमें एकत्रित हो गये। मुसलमान, हिन्दू, ईसाई सब बड़ी संख्यामें उपस्थित हुए। उन्हें विशेष रूपसे कोई बुलाने नहीं गया था। सुनते ही स्वयं आ पहुँचे। हुसेनने अपनी मृत्युके अवसरपर सिद्ध कर दिया कि हिन्दू, मुसलमान, ईसाई-जिन्होंने भारतमें जन्म पाया था-सभी एक ही है। उस मंगलवारको इनमें कोई भेद दीख नहीं पड़ता था। उस भारतरत्नकी याददाश्तमें मद्रास, बम्बई और उपनिवेशमें जन्मे छोटे-बड़े सभी आ पहुँचे। श्री दाउद मुहम्मदके निवासस्थानके समीप विशेष ट्रामगाड़ियाँ आ-आ कर रुकने लगीं। दो घंटेके लिए भारतीयोंकी दूकानें बन्द हो गई। निगमकी अनुमतिसे भारतीय बाजार भी दो घंटे के लिए बन्द रहा।

इस प्रकार भाई हुसेनने सत्यमय जीवन जीकर यह साबित कर दिखाया कि इस कठिन कलिकालमें भी सत्यकी ही जय होती है। हुसेन मरा नहीं है, वह तो अपने चरित्र की सुवासकी बदौलत जीवित रहेगा। हुसेनके गुणोंका वर्णन करते मेरी कलम थकती ही नहीं। उसके चरित्रकी उज्ज्वलताके अनेक उदाहरण मेरे मनमें आते रहते है। मेरा विश्वास है कि पाठकगण मेरे इस लेखके हेतुको समझ जायेंगे। सारे भारतीय हुसेन जैसे बनें। वयोवृद्ध हों या जवान-हिन्दू हों या मुसलमान-हम सभी भाई हुसेनके चरित्रका अनुकरण करें। उसकी स्मृतिमें, उसके पदचिह्नोंपर थोड़ा-सा भी चल पायें तो हममें से भेद-बुद्धि लोप हो जायेगी। हम सत्यकी ओर अभिमुख हों और अपना सर्वस्व देशको अर्पित कर दें। ता०१६ को भाई रुस्तमजी जब पुनः जेल जाने लगे तो भाई हुसेनसे मिलने गये; मरणशय्यापर पड़े हुए भाई हुसेनने कहा, "चाचा! आप तो जा रहे है, पर यदि रोगशय्यासे मैं उठ पाऊँ तो में भी जेलके लिए आपके साथ हो लूं। यदि मुझे देशकी खातिर जेलमें मरना नसीब हो जाये तो क्या ही अच्छा हो!" ईश्वर करे भारतमें ऐसे सैकड़ों हुसेन जन्मे !

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, १-१०-१९१३