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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


बीज अवश्य मौजूद हैं। लन्दन जैसे शहरमें उसने एकान्तको पसन्द किया। जहाँतक मैं जानता हूँ, वह विलायतके लाखों प्रलोभनोंमें से किसी एकमें भी नहीं फंसा।

पर क्रूर काल भाई हुसेनके पीछे लगा हुआ था। मैं विलायतमें था तभी उसमें क्षयके लक्षण प्रतीत होने लगे थे। मैं चौंका। वायु-परिवर्तन किया गया। वहाँके अच्छेसे-अच्छे डॉक्टरकी सलाह ली गई, पैरिसके डॉक्टरको भी दिखाया किन्तु रोग तो घर कर चुका था। तबीयत कुछ सुधरी और फिर पलटा खा गई। हुसेनका तेज मुरझाने लगा। उसका जोश जाता रहा; कष्टने उसे घेर लिया। उसे जीनेकी बड़ी इच्छा थी;ऐशो-इशरतके लिए नहीं, मुल्ककी खिदमतके लिए। वह दक्षिण आफ्रिका आया। पुनः तबीयतमें सुधार दीख पड़ा। वह भारत गया। उसने वहाँसे लिखा, "मैं हिन्दुस्तानके महल देखने नहीं उसका दिल देखने आया हूँ और उसे देख रहा हूँ।" वहाँसे वह मक्काशरीफ गया। वहाँ उसने अपना विशुद्ध हृदय खुदाके सामने खोल दिया। उसके दिलपर हज-यात्राका बड़ा असर पड़ा। वहाँसे भेजे पत्रों में वह लिखता है, “जिस पैगम्बरने इस पवित्र स्थानमें दीनके लिए करोड़ों लोगोंमें प्रतिवर्ष हज करनेकी प्रेरणा भर दी है उसकी शक्ति कितनी अपार होनी चाहिए। उसकी पैगम्बरीमें भला किसे सन्देह हो सकता है ? यहाँ आकर मेरा मन बहुत सुखी हुआ है।" इसके बाद वह इस्तम्बूल गया। वहाँ बलगेरियाकी लड़ाई चल रही थी। यहाँ हुसेन अपने पिता एवं दूसरे साथियोंका मित्र, मार्ग-दर्शक तथा परामर्शदाता बन गया। वहाँके बड़े-बड़े अधिकारियोंके मन भी उसने हर लिये और भारत तथा भारतीयोंका नाम उज्ज्वल किया। ये लोग एक नवयुवकपर क्यों मुग्ध हुए होंगे? मैं तो कहूँगा कि उसकी सत्यनिष्ठाके तेजके कारण। इसके बाद बाप-बेटे बिछुड़े। दाउद सेठ डर्बन आ गये। भाई हुसेनको विलायतमें अपनी शिक्षा पूरी करनी थी, लेकिन खुदाकी मर्जी कुछ और ही थी। [एकाएक हुसेनको खाँसीमें] खून आने लगा। तबीयत एकदम गिर गई। दाउद सेठको तार मिला कि वापस आ रहा हूँ। उन्होंने अपना सिर ठोक लिया और समझ लिया कि अवश्य ही हुसेनको बीमारी भयंकर है अन्यथा वह वापस क्यों लौटता। बीमारीका यह दौर अन्तिम साबित हुआ। डर्बन आकर उसने जो खाट पकड़ी सो फिर उठ ही न पाया। अच्छेसे-अच्छे डॉक्टरोंका इलाज किया गया। स्वयं पिताने नर्सका कार्य किया। जैसी सेवा इस पिताने अपने पुत्रकी की वैसी सेवा करनेवाले बाप मैंने थोड़े ही देखे हैं। हुसेन तो दाउद सेठकी आँखकी पुतली था। वे रात-दिन [उसकी चारपाईके पास] उसे निहारते बैठे रहते। उन्होंने क्षणभरके लिए भी हुसेनको नहीं छोड़ा। परन्तु तकदीरके सामने तदबीर बेचारी क्या करती? किस्मत सदैव दो डग आगे चलती है और उसके ये डग कुछ ऐसे बड़े-बड़े होते है कि उन तक पहुँच पाना असम्भव है।

जब-जब मैं डर्बन जाता, तब-तब तीर्थ-स्थान समझकर कांगोला जाता। एक बार मैने हुसेनकी आँखोंमें आँसू देखे। मैंने पूछा, "क्यों भाई मरना ठीक नहीं लगता?" हुसेनने मुसकराते हुए जवाब दिया, "मुझे मौतका डर नहीं है," और तब रो पड़ा, “पर मैं कुछ भी तो कर नहीं पाया, मुझे देश-सेवा करनी है।" मैने उसे यह कहकर दिलासा दिया, "भाई तूने तो देश-सेवा बहुत की है। हिन्द यदि तेरे जैसे जवानोंको जन्म दे तो उसकी दशा आज ही ठीक हो जाये। तू चल बसेगा तो भी मेरे लिए तो तू जीता