पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 12.pdf/२६१

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२२५
हाजी हुसेन दाउद मुहम्मद


प्रज्वलित रहा करती थी। हिन्दुस्तानके उसने दर्शन तो नहीं किये थे, किन्तु उसका चित्र उसने अपने सपनों में खींच रखा था। यह नवयुवक भारत और भारतीयोंके लिए मरनेको सदैव तैयार रहता। उसके हृदयमें यह लगन समाई हुई थी कि भारतीय किस प्रकार आगे बढ़ें और उनका तेज प्रकट हो। मैं मानता हूँ कि वह एक कट्टर मुसलमान था परन्तु दूसरे धर्मोके प्रति उसके मनमें तनिक भी तिरस्कार-भावना नहीं थी। हिन्दू,मुसलमान, ईसाई और पारसी, सारे भारतीय उसकी निगाहमें एक-जैसे थे। उसके लिए तो इतना काफी था कि वे अच्छे मनुष्य हैं। भारतीय होनेके नाते वे सब उसके लिए भाईके समान थे। ऐसे गुणोंके आगारके गुजर जानेपर इस कथनको कि हम वैधव्यको प्राप्त हो गये हैं, कौन अतिशयोक्तिपूर्ण मानगा?

भाई हुसेनने दाउद मुहम्मद जैसे महान व्यापारीके यहाँ जन्म लिया था किन्तु उसे व्यापारके प्रति बचपनसे ही अरुचि थी। उसका इरादा शिक्षा प्राप्त करनेका हुआ। पिताने उसे मेरे पास फीनिक्स भेज दिया। वह शीघ्र ही सारे फीनिक्स-वासियोंका दुलारा बन गया। उसके सरल स्वभावकी सुगन्ध शीघ्र ही फैल गई। मेरे कुटुम्बमें तो वह ऐसा हिलमिल गया था कि मुझे मानो पाँचवाँ पुत्र ही मिल गया हो। कुछ-एक मास फीनिक्समें रहनेपर उसने मुझे लिखा, “मुझे फीनिक्स पसन्द है। अपना जीवन यहीं बिताना चाहता हूँ; किन्तु अभी तो मेरी इच्छा विलायत जानकी है। जैसा कि मैं कह ही चुका हूँ मुझे पूरी उम्मीद है कि मैं वहाँ बिगडूंगा नहीं। अत: अब आप मुझे इजाजत दें और अब्बाजानसे भी इजाजत दिलवा दें।" फीनिक्स उसे पर्याप्त नहीं जान पड़ता था। उसे तो खूब अध्ययन करना था। उसे अपनी काव्य-शक्तिकी आजमाइश करनी थी। है बहारे बागे दुनिया' गजल लिखकर उसने मुझे भेजी थी। फीनिक्समें तो उसने यह गीत सबको सिखा दिया था। इस गीतकी अन्तिम पंक्तिमें याद कर तू ऐ नजीर" के स्थानपर उसने याद कर तू ए हुसेन" लिखकर भेजा था। मैंने उससे पूछा तो उसने बताया कि यह गजल मेरी लिखी हुई नहीं है किन्तु इसमें व्यक्त विचार अवश्य मेरे भी हैं। उसे तो नजीर बनना था। वह विलायत गया। उसका इरादा बैरिस्टर बननेका था। वह बैरिस्ट्री पढ़े यह मोह मुझे नहीं था, अतः मैने उसे समझाया। उसने कहा यह सब आपके लिए ठीक है, मेरे लिए नहीं। मुझे तो आप बैरिस्टर बन जाने दें। मैंने पूछा, "बैरिस्टर बनकर क्या करोगे भाई?" उसने कहा “सो आप देख लीजिएगा।" मेरे यह पूछनेपर कि " 'वकालत करके धन कमाना है ? -उसने ऊँचे स्वरमें कहा जी नहीं! " जिसकी झनकार आज भी मेरे कानोंमें गूंज रही है। "मुझे तो देशसेवा करनी है। मैं वकील बनकर और ज्ञानोपार्जन करके फीनिक्समें रहूँगा और अपने देशवासी भाइयोंके दुःख में हाथ बँटाऊँगा।" दाउद सेठने भाई हुसेनको विलायत भेजा। उसने वहाँ पहुँचते ही अध्ययन शुरू कर दिया और डट कर अभ्यास किया। लन्दनके पास एक सुन्दर मैदान है। वहाँ जाकर बह एकान्तमें बैठता और ध्यानस्थ हो जाता। उसकी यह स्थिति समाधिसे मिलती-जुलती होती। वह अपने प्रिय काव्योंमें लीन हो जाता। वहाँ बैठकर लिखी गई अपनी रचनाएँ वह कभी-कभी मुझे भी दिखाता। मैंने हुसेनकी एक दो रचनाएँ अंग्रेजी काव्यके मर्मज्ञोंको दिखाई और उन्हें वे पसन्द आई। उन्होंने मुझे इस सम्बन्धमें बतलाया कि हुसेनमें काव्य-शक्तिके विकासके

१२-१५