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१५६. हाजी हुसेन दाउद मुहम्मद'

भाई हुसेनकी अकाल मृत्युसे यहाँकी भारतीय जनता विधवा बन गई है। यह बात में विचारपूर्वक ही लिख रहा हूँ। वैसे सामान्यतः यह सवाल उठ ही सकता है कि एक बाईस वर्षका जवान, जिसे अनेक भारतीय न देख ही पाये हैं और न पहचानते ही है, जिसने लोगोंको कभी बड़े-बड़े भाषण या उपदेश नहीं दिये, उसके इस प्रकार चले जानेसे 'जनता विधवा हो गई' ऐसा कहना क्या अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है। किन्तु मेरा जवाब यही है कि भाई हुसेन जैसा सदाचरण मैंने बहुत थोड़े नवयुवकों या बड़ी उम्रके लोगों में देखा है। उसकी तुलनामें ठीक उतर सकनेवाला कोई प्रौढ़ व्यक्ति मुझे तो दक्षिण आफ्रिका-भरमें दिखाई नहीं देता। मैं अनेक नवयुवकोंको जानता हूँ किन्तु उनमें भी भाई हुसेन जैसा कोई होगा इसके बारेमें मुझे सन्देह ही है। कोई उससे बढ़कर हो तो उसे मैं निश्चय ही नहीं जानता। भाई हुसेनने सत्यको अपनी जिन्दगीका आधार बना रखा था। उसका जीवन ही सत्य के लिए था। झूठ, दगा, कपट और दम्भसे भाई हुसेनको अत्यन्त घृणा थी। जिस स्थानपर छल-कपटका व्यवहार होता है उसके लिए वहाँ बैठना भी दूभर था। किसी जगह लोग झूठ बोल रहे हैं -यह उसे दीख-भर जाय, तो फिर वहाँ उसका मन बिल्कुल नहीं लगता था- उसे पंख हों तो वह वहाँसे उड़ जाये--ऐसा उसका स्वभाव' था। हमारे साधारण वर्गोंमें जो मिथ्याचार चलता है उसके प्रति इस युवकको इतनी ग्लानि थी कि उसने अनेक बार डर्बनसे हट जाना चाहा था। किसी मनुष्यके भला होनेकी बात वह सुन पाता और विश्वास कर पाता तो उसपर वह मुग्ध हो उठता। वह ऐसा ही सरल था। उसका हृदय एक गरीब भोली गायके जैसा था। मैंने तो उसके व्यक्तित्वपर पापका एक छींटा भी नहीं पाया। उसकी- सी निर्दोष बुद्धि और शुद्ध हृदय तो अन्यत्र अलभ्य ही है। ऐसा एक खिलता हुआ गुलाब मुरझा गया है किन्तु उसकी महक आज भी शेष है। वह खुशबू आज भी हमारे मनमें समाई हुई है। भाई हुसेनके सम्पर्क में जो भी व्यक्ति आये हैं उन सबके पास वह अपनी खुशबू छोड़ गया है। कुसंगति तो हुसेनको छू तक न पाई। एक बार श्री दाउद मुहम्मदने हुसेनको लिखा, “बेटा ! विलायतके प्रलोभनोंसे बचते रहना और बुरी सोहबतके पास न फटकना।" इसका जो जवाब श्री हुसेनने दिया था वह मुझे याद है। 'अब्बाजान ! आप अपने पुत्रको नहीं पहचानते। कुसंग हुसेनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता और न आपका यह पुत्र विलायतके किसी प्रलोभनमें फँस ही सकता है।" यह उसके जवाबका भावार्थ था। इतनी दृढ़ताके साथ लिखना हुसेनका ही काम था। वह स्वयं तो पारस-मणि था, कुधातुको छूदे तो कुधातु सोना हो जाये। यह सब लिखते हुए मैं कोई अतिशयोक्ति कर गया हूँ, पाठक ऐसा न मान बैठे, यह मेरी प्रार्थना है। और ऐसे सद्गुणोंके साथ ही भाई हुसेनके हृदय में स्वदेशके प्रति प्रेमाग्नि सदैव

१.देखिए. शीर्षक १५२ ।