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विवाह-समस्था


उनके बच्चे अवैध माने जाते हैं। पाठकको याद रखना चाहिए कि अपनी इस भयानक स्थितिकी जानकारीसे हमारी स्वाभिमानी जातीय भावनाओंको ठेस पहुंची है, और इससे प्रत्येक भारतीय पत्नी और प्रत्येक भारतीय बच्चेके प्रवेशका मार्ग भी बड़ी सफाईके साथ रुक गया है। सरकारने जानबूझकर सर्ल-निर्णयकी स्थिति उत्पन्न की थी; किन्तु वह उस निर्णयको कार्यरूप देने का पर्याप्त साहस नहीं कर पाई, नहीं तो एक भी भारतीय पत्नी या उसके बच्चे इस देशमें प्रवेश न कर पाते। वह एक ऐसा अन्याय होता जिसे दक्षिण आफ्रिकाके यूरोपीयोंकी मानवीयता भी सहन न कर पाती। इसलिए इस प्रकार हमें अपनी दयापर आश्रित करने के बाद सरकारने कृपापूर्वक घोषित किया कि किसी अधिवासी एशियाईकी पत्नीके प्रवेश विषयक प्रशासनकी अबतक की नीतिमें उस फैसलेका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, बशर्ते कि उस आदमीकी दक्षिण आफ्रिकामें वही एक पत्नी हो। याद रखना चाहिए कि सरकारकी यह कथित क्षमाशीलता, ऊपर बताये गये सर्ल-फैसलेके अन्य परिणामोंसे, उन पत्नियों और बच्चोंकी रक्षा नहीं कर सकती थी जिन्हें एहसान करके प्रवेश करने दिया गया था। अपनी पत्नियोंके प्रवेशके बावजूद भारतीय इस बातसे सन्तुष्ट नहीं हो सकते थे कि उन पत्नियोंका कानूनी दर्जा छीन कर उन्हें पूर्णतया अनिश्चित कानूनी स्थितिमें डाल दिया जाये। वे फैसले में निहित अपने स्त्री-समाजपर लगे कलंकको बर्दाश्त करनेके लिए तैयार न थे। इसलिए सरकारने संघ-संसदमें विचाराधीन प्रवासी विधेयकमें बड़े बेमनसे, और निहायत कंजूसीके साथ, किस्तोंमें, पहले श्री अलेक्जेंडरका, और फिर सिनेटर श्नाइनरका संशोधन स्वीकार किया। किन्तु ये संशोधन चूंकि जल्दबाजीमें तैयार किये गये थे इसलिए उनसे यदि राहत मिली भी तो आंशिक ही। उन्होंने दक्षिण आफ्रिकाके बाहर, किसी भी धार्मिक रीतिसे सम्पन्न, एकपत्नी-विवाहको वैध बना दिया। किन्तु इन संशोधनोंने भी दक्षिण आफ्रिकामें विवाहित या भविष्य में विवाहित होनेवाली स्त्रियोंका दर्जा अनिश्चित ही छोड़ दिया। अब भारतीयोंका कथन इतना ही है कि दक्षिण आफ्रिकामें सम्पन्न भारतीय विवाहोंको भी वही मान्यता दी जाये जो भारतमें सम्पन्न हुए विवाहोंको दी गई है। और यह, जैसा कि सरकारको भी बताया जा चुका है, प्रवासी अधिनियममें जरा-सा परिवर्तन करके या संघके विवाह-कानूनों में संशोधन करके किया जा सकता है।

हमने संशोधनोंसे मिली राहतके बारेमें "यदि मिली भी तो" शब्द इस्तेमाल किये हैं। सरकारने कुलसुम बीबीके मामले में, जो इस समय सर्वोच्च न्यायालयके सामने पेश है, जैसा रुख अपनाया है, उसे देखते हुए यह विशेषण आवश्यक हो गया है। डर्बनके प्रवासी अधिकारीने, निश्चय ही सरकारके आदेशपर, यह सवाल उठाया है कि जो धर्म बहुपत्नी विवाहकी अनुमति देता है, क्या उसके अन्तर्गत हुए विवाहको एकपत्नी विवाह कहा जा सकता है, फिर भले ही इस प्रकार विवाहित वह पत्नी अपने पतिकी एकमात्र पत्नी हो। सरकारको यह सवाल नहीं उठाना चाहिए था किन्तु स्पष्टत: वह यह दिखाना चाहती है कि जो संशोधन किये भी गये वे शुद्ध मनसे नहीं किये गये। प्रकटतः वे भारतीय विवाहोंके बारेमें कानून बनानेकी भारतीयोंकी मांगकी पूर्तिके लिए किये गये थे। श्री अलेक्जेंडरके संशोधनसे उसकी पूर्ति नहीं हुई थी, इसलिए श्री शाइनर-