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१५३. विवाह-समस्या

इस बारकी लड़ाई समाजकी दृष्टिसे इतने महत्वपूर्ण मामलोंसे सम्बन्ध रखती है कि उनमें से हरएकपर विशेष ध्यान देना जरूरी है। पिछले हफ्ते हमने तीन-पौंडी करके सवालपर विचार किया था। इस सप्ताह हम विवाहके सवालपर विचार करेंगे। चूंकि इसके कारण हमारी स्त्रियाँ भी लड़ाईमें शामिल हो गई हैं, इसलिए यह सवाल भूतपूर्व गिरमिटिया पुरुषों, स्त्रियों और बच्चोंसे जबर्दस्ती वसूल किये जाने वाले वार्षिक करसे भी अधिक महत्वपूर्ण है।

वैवाहिक कठिनाई सर्ल-निर्णयसे शुरू होती है। इसलिए यह जरूरी है कि इस ऐतिहासिक फैसलेसे पूर्व क्या स्थिति थी, इसे समझ लिया जाये। जस्टिस सर्लको कुछ पता न था कि उनके फैसलेका इस उपमहाद्वीपमें रहनेवाले भारतीयोंपर क्या असर होगा। इस फैसलेके पहले भारतीय पत्नियां अपने पतियोंकी विधिवत् विवाहित पत्नियाँ मानी जाती थीं। विभिन्न प्रान्तोंके सर्वोच्च न्यायालयोंके मास्टर, बिना वसीयतवाली जायदादोंके मामलों में ऐसी पत्नियों तथा उनकी सन्तानके दावोंको मान्यता देते थे। कभी किसी भारतीयको यह सन्देह करनेका कारण नहीं मिला था कि दक्षिण आफ्रिकाकी अदालतों द्वारा विवाहोंकी वैधतापर इस कारण आपत्तिकी जायेगी कि वे ईसाई प्रणालीसे सम्पन्न नहीं हुए हैं या उन विवाहोंका पंजीयन दक्षिण आफ्रिकामें नहीं हुआ है। पर संघ सरकारने एशियाइयोंका पहलेसे भी अधिक दमन करनेकी अपनी नीतिके अनुसार, और समाजके पुरुषोंपर ही अपने आक्रमणसे सन्तुष्ट न होकर, हमारी स्त्रियोंके प्रति भी शत्रुवत् रवैया बरतनेका निश्चय किया। किसी अत्युत्साही कानूनअधिकारीने पता चलाया कि दक्षिण आफ्रिकाके कानूनके अनुसार उनके विवाहोंको अवैध करार देकर अधिवासी भारतीयोंकी पत्नियोंका प्रवेश रोका जा सकता है। इसलिए अधिकारियों ने केपमें ऐसी एक महिलाके प्रवेशाधिकारको चुनौती दी। और सरकार द्वारा पहली बार उठाये गये इस मामलेपर जस्टिस सर्लसे फैसला देनेको कहा गया। जस्टिस सर्लने निर्णय दिया कि जिन धर्मों में बहुपत्नी विवाह जायज है, उन सभी धर्मोकी रीतिसे किये गये विवाह अवैध है और चूंकि एक स्थायी अधिवासी भारतीयकी पत्नी होनेका दावा करनेवाली वह स्त्री मुसलमान है, इसलिए संघकी अदालतें उसके विवाहको मान्यता नहीं दे सकतीं। सर्वोच्च न्यायालयके नेटाल प्रान्तीय डिवीजनके मास्टरने इस निर्णयका अनुसरण किया। मास्टरने एक मृत भारतीयकी एकमात्र पत्नीका उत्तराधिकार-शुल्कसे छूटका दावा इस आधारपर रद कर दिया कि उसका विवाह संघके कानूनों के अनुसार नहीं हुआ था। इस बातमें जस्टिस गाडिनरने तो हद ही कर दी। खूनके जुर्म में गिरफ्तार एक भारतीयके मुकदमे में जब उसकी पत्नीने अपने पतिके खिलाफ गवाही देनेकी जिम्मेदारीसे छूट पानेके लिए अर्जी दी तो जस्टिस गाडिनरने उसके विवाहको मान्य करने से इनकार कर दिया। इस प्रकार गैर-ईसाई भारतीयोंको सहसा यह जानकारी हुई कि दक्षिण आफ्रिकामें उनकी पत्नियोंका दर्जा महज रखेलोंका है और