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स्वर्गीय श्री हाजी हुसेन दाउद मुहम्मद


सारी मण्डली उन्हींपर निर्भर रही। तुर्की के बड़ेसे-बड़े व्यक्तियोंसे वे लोग मिले। उस अजनबी मुल्क में भी वे जिसके सम्पर्कमें आये उसके प्यारे बन गये। वहाँ उन्होंने अपने पितासे विदा ली। उनका दूसरा तीर्थस्थान लन्दन था। अपना अध्ययन पूरा करने के लिए उन्हें वहाँ अवश्य जाना था। पर दुष्ट रोगने उनका पिंड नहीं छोड़ा था। वे फिर एकाएक गिर गये। श्री दाउद मोहम्मदको तार मिला कि हुसेन लौट रहे हैं। और इतनेसे ही सब स्पष्ट हो गया। पिताको मालूम हो गया कि पुत्र उनकी गोदमें मरनेके लिए आ रहा है। और वह अन्तिम क्षण तक चैतन्य रहकर अपने पिताकी गोदमें मरे ऐसे पिताकी गोदमें जिसका प्रेम असाधारण था (मैं कहनेवाला था कि अलौकिक था)। श्री दाउद मोहम्मदने हुसेनकी बड़ी सेवा-शुश्रूषा की। पांच महीनेसे भी कुछ ज्यादा समय तक यह प्रेमाल पिता हुसेनकी शय्याके पाससे नहीं हटा। जब भी मैं डर्बन जाता तो तरुण रोगीको देखनेके लिए श्री दाउदके घरकी तीर्थ-यात्रा करनेका सौभाग्य जरूर प्राप्त करता था। श्री दाउद अपने पुत्रकी सेवा-सुश्रूषा जिस लगनसे करते थे और पुत्र भी जिस प्रकार केवल उन्हींकी सुश्रूषापर पूरा भरोसा करता था, उसे देख कर आत्मा तृप्त हो जाती थी। डॉ० मैकेंजी तथा उनके सहायक डॉ० ऐडम्स हुसेनकी चिकित्सा कर रहे थे। किन्तु तुर्कीसे लौटनेके बाद हुसेनने जो खाट पकड़ी तो फिर कभी नहीं छोड़ी।

शव-यात्राका जुलूस बहुत विशाल था। हजारों लोग अर्थीके पीछे-पीछे चल रहे थे। मुसलमानोंके सिवा भारतके सभी प्रान्तोंके हिन्दू, इस श्रेष्ठ युवककी स्मृतिमें अपना सम्मान समर्पित करनेके लिए होड़ लगा रहे थे। उपनिवेशमें जन्मे भारतीय बहुत बड़ी संख्यामें उस व्यक्तिकी स्मृतिके प्रति अपना सम्मान प्रकट करने आये थे, जो उन्हींकी भाँति दक्षिण आफ्रिकामें पैदा हुआ था। मंगलवारको जब अन्तिम-संस्कार हुआ प्रायः सारे दिन स्पेशल ट्रामगाड़ियों में भर-भर कर लोग आते रहे। कारपोरेशनकी सहमतिसे दो घंटेके लिए डर्बनकी सारी भारतीय दूकाने और भारतीय बाजार बन्द रखे गये। इस अत्यन्त होनहार युवककी स्मृतिको जो स्वतःस्फूर्त सम्मान मिला वह अन्य किसी भारतीयको कभी नहीं मिला था। उनकी मृत्युपर कुछ समयके लिए हम सभी यह भूल गये कि हम हिन्दू, मुसलमान, पारसी या ईसाई हैं। वे मर कर भी हमें यह अनुभव करा रहे है कि अन्ततोगत्वा हम सब भारतके बेटे हैं- -- हम सब भाई-भाई है, और एक ही माँको सन्तान हैं। मुझे श्री हुसेनके चरित्रपर इतना लिखने में सुख मिला है। मैं उन्हें जितनी अच्छी तरह जानता था उतना अन्य कोई नहीं जानता था। मुझे बहुत कम ऐसे युवकोंसे --युवक ही क्यों, बूढ़ोंसे भी --मिलनेका सौभाग्य मिला है जिनका चरित्र हुसेनके जैसा निष्कलंक हो। मेरे लिए हुसेन मरे नहीं हैं। वे अपने चरित्रके कारण जीवित हैं। मेरी कामना है कि सम्पूर्ण दक्षिण आफ्रिकाके भारतीय युवक मेरी इस नम्र श्रद्धांजलिको उसी भावनासे ग्रहण करें जिस भावनासे वह अर्पित की गई है, और हम सब लोग श्री हाजी हुसेन दाउद मुहम्मदने जो उदाहरण हमारे सामने रखा है उसका अनुकरण करें।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, १-१०-१९१३