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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उसके बारेमें पढ़ा था और उसके प्रति उनके मनमें प्रेमकी भावना इतनी प्रबल थी जिसे दबाया नहीं जा सकता था। जब पिछली १६ तारीखको श्री रुस्तमजी एक सत्याग्रहीके रूप में निकलनेके पूर्व उनके पास गये तो तरुण हुसेनने कहा श्री रुस्तमजी! यदि मैं इस रोगशय्यासे उठ सका तो आप मुझे जेलमें पायेंगे। सत्य तथा न्यायके लिए जेलमें मरना पड़े तो वह मौत भी कितनी शानदार होगी।" प्राण-रक्षाके लिए मृत्युसे वे जूझ रहे थे, पर उनकी इस इच्छामें स्वार्थ लेशमात्र नहीं था। वे अपने देश तथा मानवताकी सेवाके लिए जीवित रहना चाहते थे।

यद्यपि उनके पिता श्री दाऊद बहुत बड़े व्यापारी रहे हैं, किन्तु हुसेन जब बहुत छोटे थे तभीसे व्यापारसे घृणा करने लगे थे। वे धन-सम्पत्तिकी उपेक्षा करते थे। वे अध्ययन करना चाहते थे। श्री दाऊद मुहम्मदने उन्हें मेरे पास फीनिक्समें रख दिया था और सारा आश्रम इस लड़केके बहुमूल्य गुणोंकी कदर करने लगा था। वे मेरे कुटुम्बके एक प्रिय सदस्य बन गये थे। किन्तु फीनिक्स उनके लिए पर्याप्त नहीं था। उन्हें वहाँका जीवन पसन्द था, किन्तु वे अपनी साहित्यिक और काव्यात्मक रुचियोंके लिए व्यापक क्षेत्र चाहते थे। वे अपने देशके लिए लड़ना चाहते थे। उन्हें किसी आह्वानका अनुभव हुआ। उन्होंने सोचा (जो मेरी समझसे गलत था) कि यदि उन्हें कुछ भलाई करनी है तो उनका लन्दन जाना और बैरिस्टर बनना जरूरी है। वे अपने पिताकी आँखोंके तारे थे। वे सबकी शुभ-कामनाओं के साथ लन्दन गये। लन्दनमें भी उन्होंने शोघ्र ही अपनेको, जहाँ भी गये, प्रिय बना लिया। वे पूरे मनोयोगसे अध्ययनमें लग गये। मैं जानता हूँ कि वे अक्सर हैम्पस्टेड हीथ जाया करते थे और वहाँके स्निग्ध लॉनपर बैठकर अपने प्रिय कवियों को पढ़ते हुए स्वप्नों में खो जाते थे। वे स्वयं भी कविताएँ लिखते थे, और कविताके पारखियोंने मुझे बताया है कि उनकी रचनाएँ काफी अच्छी होती थीं।

किन्तु विधिका यही निर्णय था कि हुसेनको जीना नहीं है। जिस भयंकर रोगसे उनका शरीर अन्तत: नष्ट हुआ उसने लन्दनमें ही उनके शरीरको खोखला करना शुरू कर दिया था। उन्होंने विविध चिकित्साएँ आजमाई। वे विशेषज्ञोंकी देखरेख में रहे। कुछ समयके लिए उनका रोग सुधरा, पर वे रोगमुक्त नहीं हुए। वे डर्बन लौटे और यहाँ उन्हें अपना स्वास्थ्य पहलेसे अच्छा लगा। डॉ० ऐडम्सने, जो हुसेनको बहुत प्यार करते थे, असाधारण लगनसे उनकी चिकित्सा की। उनकी दशा कुछ सुधरी, लेकिन बस, कुछ ही सुधरी। वे इंग्लैंड जाने और अध्ययन करनेको उत्कंठित थे। वह भारत गये और उसे श्रद्धाकी आँखोंसे देखा। मुझे लिखे अपने अनेक पत्रों में से एकमें उन्होंने कहा कि मैं भारतकी प्रस्तर-कला नहीं, बल्कि उसके हृदयको देखना चाहता हूँ। उन्होंने अपने पिता तथा अनेक प्रतिष्ठित लोगोंके संग अरबकी पवित्र धर्म-भूमिकी यात्रा की। इस तीर्थ-यात्राका उनपर स्थायी असर पड़ा। अपने एक पत्रमें पैगम्बरकी उन शक्तियोंकी चर्चा करते हुए वे आनन्द-विह्वल हो गये, जो साल-दर-साल लाखों व्यक्तियों को इस विशेष विधिसे सृष्टि-रचयिताके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए बुला सकती हैं। वहाँसे यह दल कुस्तुनतुनियाको रवाना हुआ। उस समय इटलीसे लड़ाई चल रही थी। तरुण हुसेन सचमुच ही अपने पिताके पथदर्शक और मित्र थे। इस यात्रामें