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स्वर्गीय श्री हाजी हुसेन दाउद मुहम्मद
[पुनश्चः]

यदि तुम्हें बंडीकी जेबमें या अन्यत्र रावजीभाईका पत्र मिले तो भेज देना। उसमें गोर्धनभाईके सम्बन्धमें कुछ लिखा है। भायातके कागजात मिल गये हैं। रुस्तमजी सेठका मुख्त्यारनामा प्रमाणित करनेके लिए भेजता हूँ। उसपर गवाहकी तरह अपना दस्तखत करके रख लेना। कुछ लेख भी भेजता हूँ। उमर सेठके नामका मुख्त्यारनामा उमर सेठको भेज देना और उसपर पाँच टिकट लगानेके लिए लिख देना। मेढ, प्रागजी और मणिलाल गिरफ्तार हो गये हैं।

गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती प्रति (सी० डब्ल्यू० ५६५३) से। सौजन्य : राधाबेन चौधरी।

१५२. स्वर्गीय श्री हाजी हुसेन दाउद मुहम्मद'

गुलाब भरे-यौवनमें ही झर गया। समूचे राष्ट्रको शोक-मग्न छोड़कर युवक हुसेन अपने जीवनके वसंतकाल में ही चल बसे। उम्र उनकी केवल २२ साल थी पर दिमाग उनका ऐसा था जो किसी ४२ सालके प्रौढ़ व्यक्तिको भी शोभा दे। सचमुच ही देवतागण जिन्हें बहुत अधिक प्यार करते हैं उन्हें उठा लेते हैं। यदि श्री हुसेन दाऊद अपने जीवन के शिशिरकाल तक जीवित रहते तो मुझे विश्वास है कि वे दक्षिण आफ्रिकाके भारतीय समाजके इतिहासपर अपनी छाप छोड़ जाते। ऐसी बात नहीं कि इसी अवधिमें अपने जीवनकी पवित्रतासे उन्होंने उसे प्रभावित नहीं किया। पर वे जो कुछ कर सके वह तो भविष्यमें वे जो कुछ करते, उसकी छाया मात्र है। वह एक सत्योपासक युवक थे और केवल उसीके लिए जीते थे। उन्हें शब्दाडम्बर, पाखण्ड और प्रवंचनासे बहुत चिढ़ थी, फिर चाहे ये दोष उनके गुरुजनोंमें ही क्यों न हों। बचपनसे ही उनकी यह इच्छा थी कि वे जो बात कहें उसका पालन अवश्य करें। वे मूर्तिमान निर्मलता थे। कुसंगति उनपर कोई असर नहीं डाल सकती थी। उनके साथी कितने ही पतित क्यों न हों, वे उन लोगोंको प्रभावित कर पाते थे। एक बार श्री दाऊद मोहम्मदने उन्हें लिखा कि वे लन्दन में युवकोंको आकर्षित करनेवाले फंदों और बुरी संगतसे सावधान रहें। इससे वे बहुत रुष्ट हुए और प्राय: इन शब्दोंमें पत्र लिखा 'पिताजी, आप अपने बेटेको नहीं जानते। जालोंका हुसेनपर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता। बुरे साथी उन्हींको पथ-भ्रष्ट करते है जिन्हें अपनी स्थितिका ज्ञान नहीं है। आपके पुत्रको अपनी स्थितिका ज्ञान है। वह सत्यके लिए जीता है और उसीके लिए मरेगा।" ऐसे खरे चरित्रके साथ ही उनमें अपन देश, भारतके प्रति उत्कट उत्साह था; और. अपने इस देशका अस्तित्व केवल उनकी कल्पनामें ही था। उन्होंने कभी उसे देखा नहीं था; पर इतना ही काफी था कि वह उनके पूर्वजोंका देश है। उन्होंने

१. यह लेख " विशेष संस्मरण" के रूपमें गांधीजीने इंडियन ओपिनियनमें लिखा था; देखिए दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास, अध्याय ३० भी ।