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१४३. पत्र: मगनलाल गांधीको

रेलगाड़ीमें
[सितम्बर २५, १९१३ के बाद ]'

चि० मगनलाल,

आज मैं बड़ी परेशानीमें पड़ गया। रेलके लिए दौड़ा, लड़कोंको हैरान कर डाला, मेरे कारण सब लोगोंको देर हुई। इसके बाद मैंने फिर भूल की और पुरुषोत्तमको भेजा। इस सबको जब सोचा तो बहुत बेचैन हुआ। मेरे ऐसे कामोंमें, भी जिन्हें मैं अपनी आत्माके लिए [कल्याणकारी] मानता हूँ, दोष है। मेरे मोह और लोभ जबरदस्त हैं। जल्दबाजी करना, अपने कामके लिए दूसरोंको परेशान करना, यह आत्मार्थीके लक्षण नहीं हैं। अच्छा हो कि वह अपने ऊपर अपनी शक्तिके बाहर काम न ले; उसे नहीं लेना चाहिए। कैसी दीन दशा है ? यह सब शुरूमें कहीं चूक हो जानेसे होता है। मैंने यह भी सोचा कि यदि मैंने भोजन करना टाल दिया होता तो मैं सारा काम सावकाश और स्वस्थ चित्तसे कर सकता था। ऐसा करता तो तुम लोगोंमें से किसीको हैरान करनेकी जरूरत न हुई होती। आत्मार्थी मनुष्यको अपने लिए किसी भी प्रकारको उग्र सेवा स्वीकार नहीं करनी चाहिए। तुम्हारा स्कूल छुड़वाना और लड़कोंको इस तरह दौड़ाना मेरी मानसिक स्थितिकी हीनता प्रकट करते हैं। मैं इसे जानता तो था लेकिन आज इसका स्पष्ट ज्ञान हुआ। मैं मन-ही-मन रास्ते में बहुत लज्जित होता रहा, पछताता रहा। मैं जो अपनेको कुछ विशिष्ट मानता था, आज अपनेको बहुत दयनीय अनुभव कर रहा हूँ। यह मैं तुमसे इसलिए कहता हूँ कि तुम मुझमें कई गुणोंको आरोपित करते हो। मेरे दोषोंको देखनेकी जरूरत है ताकि तुम उनसे बच सको। दक्षिण आफ्रिकाके लड़ाई-झगड़ों में व्यस्त, मैं बिलकुल मुक्त तो केवल भारतमें ही हो सकता हूँ, ऐसा लगता है। लेकिन अब यदि मैं अपने सिरपर और कोई बोझ लूं तो उस समय तुम मुझे टोकना। तुम तो भारतमें अभी मेरे साथ रहोगे ही। यदि मैं जेल चला गया तब तो स्वस्थताका अनुभव कर ही सकूँगा। नहीं गया तो शायद वहाँ फिर वापस आना होगा। अब आगे यहाँ आजके जैसा ही कभी कुछ हो तो तुम मुझे सावधान करना। कैलेनबैकका काम रोटीके बिना चल सकता था और मेरा मूंगफलीकी चटनीके बिना। बच्चोंको खिलानेका मोह न किया होता तो भी काम चल जाता। अथवा यह सब लोभ रखे होते और मैंने खुद खानेका लोभ न किया होता तो भी सब ठीक हो जाता। लेकिन मैंने तो सब घोड़ोंपर चढ़नेका एक साथ आग्रह रखा; इसीलिए ईश्वरने मुझे सबक सिखाया। ऐसी घटना मेरे साथ कुछ पहली ही बार घटित नहीं हुई है। किन्तु इस बार उसका विशद ज्ञान हुआ है। अब इस सम्बन्धमें मैं कुछ करूँगा।

१. ऐसा जान पड़ता है, गांधीजीने ट्रान्सवाल जाते हुए इसे लिखा था। वे डनसे २५ सितम्बरको रवाना हुए थे और २७ सितम्बरको जोहानिसबर्ग पहुंचे थे।