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तीन-पौंडी कर


आन्दोलनके कारण भारत सरकारने ये दोनों बातें अस्वीकार कर दी और यह प्रस्ताव किया कि जो भारतीय गिरमिटकी अपनी अवधि पूरी होनेके बाद दूसरी गिरमिटका करार न करे वह या तो भारत वापस चला जाये या वह, उसकी स्त्री और बच्चे सब प्रति-व्यक्ति तीन पौंडका वार्षिक कर दें। जो कर न दे उससे, यदि उसके पास कोई सम्पत्ति हो तो, सरकार उसकी सम्पत्ति बेचकर कर वसूल कर सकती है, किन्तु उसे जेलमें नहीं डाल सकती। भारतीयोंने इस बातका भी सख्त विरोध किया; सन् १८९६ में भारत में इस सम्बन्ध में लोगोंने सभाएँ भी की। किन्तु यह कर कायम रहा। बादमें कुछ समय तक तो जो लोग यह कर देते थे उनसे उसे वसूल किया गया, किन्तु जो नहीं दे सकते थे उन्हें जेल भेजनेकी कोई बात नहीं थी। मगर आखिर सरकारने कर न देनेवालोंको जेल भेजनेकी एक कुटिल युक्ति ढूंढ़ निकाली। युक्ति यह थी : मजिस्ट्रेटोंकी अदालतोंसे सम्बन्धित कानूनमें एक धारा ऐसी है कि यदि कोई व्यक्ति अदालतके निर्णयकी तामील नहीं करता तो ऐसा माना जाता है कि उसने अदालतकी मान-हानि की और इसके लिए उसे जेल भेजा जा सकता है। इस धाराके अन्तर्गत पहले तो भारतीयोंको कर भुगतान करनेका हुक्म दिया जाता था और यदि वह कर नहीं भरता था तो उसे अदालतको मान-हानि करनेके अभियोगमें अदालतमें खड़ा किया जाता था। उस स्थितिमें उपाय यह था कि वह अपनी गरीबी साबित करे और तब अदालत उसे छोड़े। किन्तु अदालत ऐसे गरीब आदमीकी कोई शहादत क्यों स्वीकार करने लगी! फल यह हुआ कि भारत सरकारके साथ जो समझौता हुआ था वह टूट गया। हमारे साथ विश्वासघात हुआ। सैकड़ों भारतीय जेल गये। कितनी ही स्त्रियों और युवकोंको जेल जाना पड़ा। क्या हमें इसका पाप न लगा होगा? यदि हमने जितना परिश्रम और प्रयत्न किया उससे ज्यादा किया होता तो ये गरीब लोग १५ वर्षसे इस करका जो असह्य बोझ ढोते आये हैं, क्या वे उससे मुक्त न हो गये होते? क्या इन गरीबोंके हजारों पौंड बच न गये होते? ये सारी बातें सोचकर हमारा हृदय विदीर्ण हो उठना चाहिए। हमारे आँगनमें ही इन गरीबोंके दुःखकी यह चिल्लाहट उठती रही, किन्तु हमने उसे सुना नहीं। इस पापका बोझ हमारे सिरपर कितना पड़ा होगा, यह कौन कह सकता है ? हरएक धर्मकी आज्ञा है कि जो दुःख हमारी नजरमें आये उस दुःखमें हमें हिस्सा लेना चाहिए। हमने ऐसा नहीं किया। आज उसका अवसर है।

हमारा विश्वास है कि यदि हमारे समाजके अधिकांश लोग इसके लिए लड़ें तो यह कर जरूर रद हो जाये। यदि कम लोग लड़ेंगे तो देर लगेगी। किन्तु इस करका रद होना तो निश्चित ही है। यह लड़ाई ऐसी है कि उसमें सब भारतीय बहुत आसानीसे और उत्साहपूर्वक भाग ले सकते है। आजतक गिरमिटसे मुक्त हजारों भारतीयोंसे हम कुछ भी मांग नहीं कर सकते थे। इस लड़ाई में तो वे भी सम्पूर्ण उत्साहसे भाग ले सकते है। हमें विश्वास है कि यदि ऐसा हरएक भारतीय, जो न तो जेल जा सकता है और न पैसा दे सकता है, अपना एक घंटा बचाकर गरीब और अपढ़ भारतीयोंको इस करके अन्यायकी बात समझाये तो हमारी लड़ाई बड़ा रंग ला सकती है। कर जानेवाला ही है, ऐसा मानकर किसीको चुपचाप बैठे नहीं रहना चाहिए। हरएकको अपनी