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१४०. अपील-निकाय किसलिए?

एक-दो व्यक्तियोंको अपनी अपीलमें सफलता मिल गई; इसी आधारपर 'नेटाल मक्युरी' ने अपनी सम्पादकीय टिप्पणीमें यह विचार व्यक्त किया है कि अपील-निकायोंसे भारतीयोंको बड़ा लाभ है। यदि अपील-निकायोंकी स्थापना किन्ही अपेक्षाकृत बुरे साधनोंके स्थानपर की गई होती तो यह बात सही हो सकती थी। परन्तु, तथ्य तो यह है कि इनका सम्बन्ध एक ऐसी स्थितिसे है जिसका पहले कभी अस्तित्व ही नहीं था। तात्पर्य यह कि इस कानूनके पास होनेसे पहले जो लोग अपने अधिवास प्रमाणपत्रोंके निर्विवाद स्वामी थे वे अधिकारी तौरपर पुनः प्रवेश पा जाते थे। अब कानूनने इन प्रमाणपत्रोंका प्रभाव समाप्त करके इन निकायोंके लिए एक धन्धा पैदा कर दिया है। ये निकाय ऐसे अधिकांश मामलोंको नामंजूर कर देते है, जो पहले सर्वथा सुरक्षित थे, और यदा-कदा एक-दो मामलोंपर स्वीकृति भी दे देते हैं। इस प्रकार कानून इस समाजसे उसके सभी अधिकार छीन लेता है और तब फिर अपील-निकायोंको उनमें से कुछको पुनः प्रतिष्ठित करने की अनुमति देता है। अगर इस दयाके लिए ही किसीको कृतज्ञ होना हो तब तो उसे उस चोरके प्रति भी कृतज्ञ होना चाहिए जो चुराये हुए मालका कुछ हिस्सा वापस कर देता है। यों निकायोंके रूपमें इनके विरुद्ध हमें कुछ नहीं कहना है। श्री बिन्स तथा श्री मॉरिस इवान्सकी नियुक्तियाँ वस्तुतः प्रशंसनीय है। किन्तु जैसे किसी मरीजका अंग काटने की इच्छासे उसे बेहोशीकी दवा सुंघाई जाती है, यदि इसी तरह [ समाजका अंग काटनेके लिए ] अच्छीसे-अच्छी नियुक्तियाँ भी की जाये तो उससे क्या लाभ है ? और ऐसी उपमा देना भी किसी हदतक सरकारकी तारीफ करना है; क्योंकि दूसरे मामले में तो रोगी अपनी भलाईके लिए स्वेच्छासे ऑपरेशन करवाता है, जब कि पहले मामले में वह अनिच्छापूर्वक शिकार बनाया गया है।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २४-९-१९१३

१४१. तीन-पौंडी कर

हमारे लिए यह सौभाग्यकी बात है कि सत्याग्रह जिन सवालोंको लेकर किया जा रहा है, उनमें तीन-पौंडी करका सवाल भी शामिल है। इस सवालका पिछला इतिहास यहाँ स्मरणीय है। इस करकी चर्चा पहली बार सन् १८९४ में शुरू हुई। नेटालकी सरकारने भारतमें एक शिष्टमण्डल भेजा। भारतीयोंने उसी समय इस करका सख्त विरोध किया। सरकारका इरादा पहले तो २५ पौंडका वार्षिक कर लगानेका था और उसने मांग की थी कि यदि कोई भारतीय उसका भुगतान न कर सके तो सरकारको उसे जबरदस्ती भारत वापस भेज देनेकी सत्ता मिलनी चाहिए। हमारे