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तीन-पौंडी कर


उस ऋणको चुकाने में असमर्थ रहा है जिसे चुकानेकी उसे आज्ञा दी गई है, तो उसे जेलकी सजा नहीं भी दी जा सकती। किन्तु हम जानते है कि अधिकांश मामलों में मजिस्ट्रेटोंने, जो अन्ततः सर्वशक्तिमान' बागान-मालिकोंके समाजके बीच रहनेवाले मानवजातिके ही सदस्य है, गरीबीके साक्ष्यपर अविश्वास करके गैर-अदायगीके लिए इन लोगोंको जेलकी सजा दी है। इस तरहका सबसे ताजा मामला सरजूका है। उसने पिछले तीन वर्षोंसे यह कर नहीं दिया है। जितना दे सकता था, उतना उसने दिया और फिर अपनी असमर्थता प्रकट की। किन्तु उसकी दलील अस्वीकार कर दी गई और उसे ३० दिनोंका सपरिश्रम कारावास भोगना पड़ा। और फिर यह कारावास उसे अदायगीसे मुक्त भी नहीं करता। अगर कोई पुलिस अधिकारी समझे कि उसके पास साधन हैं तो कर न अदा करनेपर वह पुनः गिरफ्तार किया जा सकता है और पुन: दण्डित हो सकता है। इस प्रकार हमारे विचारमें गैर-अदायगीके लिए गरीब स्त्री-पुरुषोंको जेल भेजनेके उद्देश्यसे मजिस्ट्रेट अदालत-कानूनका सहारा लेकर स्थानीय सरकारने भारत सरकारके साथ विश्वासघात किया है।

परन्तु उस समय तो कोई भी आदमी यही सोचता कि गिरमिट प्रथा बन्द हो जानपर यह कर उठा दिया जायेगा। ऐसी कोई बात नहीं हुई। निष्ठुर मालिकोंको गिरमिटपर मजदूर रखनेका स्वाद मिल गया है, इसलिए वे उससे कम किसी और चीजसे सन्तुष्ट होनेवाले नहीं है- और स्वतन्त्र मजदूरोंसे तो कदापि नहीं। इसलिए यह कर बना रहा।

और तब आई स्थितिको पराकाष्ठा। नेटालके प्रमुख व्यक्तियोंने श्री गोखलेको विश्वास दिलाया कि वे स्वयं भी इसे नहीं चाहते और यह कर उठा दिया जायेगा। संघ-सरकारने हमारे इन विशिष्ट देशबन्धुसे पक्का वादा किया कि वह यह कर उठा देगी। फिर भी, संसदके पिछले अधिवेशनमें उसने अपना वादा तोड़ दिया।

कौन कह सकता है कि स्थानीय भारतीय समाजने सत्याग्रह आन्दोलनका आश्रय लेनेका निर्णय करने में थोड़ी भी जल्दबाजी की है ? वह किसी भी समय उचित ही होता, किन्तु इस समय तो उसका दोहरा औचित्य है। यदि हमारी ही तरह हमारे पाठकोंको भी ज्ञात होता कि इस विश्वासघातसे -सरकार द्वारा कर न हटाये जानकी बातसे-श्री गोखलेको कैसा धक्का लगा और किस प्रकार सख्त डॉक्टरी हिदायतोंके बावजूद सरकार तथा जनताको अपने कर्त्तव्यके प्रति जगानेके लिए उन्होंने भारत लौटनेका निश्चय किया -अगर उन्हें मालूम होता कि इस बातके लिए उनपर कितना असाधारण जोर डाला गया कि वे अपना इंग्लैंडसे प्रस्थान करनेका कार्यक्रम स्थगित कर दें, तो हरएक भारतीय अपने समस्त वैयक्तिक हितोंका खयाल छोड़कर इस करकी समाप्तिके लिए मृत्यपर्यन्त लड़नेको तैयार हो जाता। [इसकी समाप्तिके लिए संघर्ष करना] अपने देशके प्रति, श्री गोखलेके प्रति और उन गरीबोंके प्रति, जो गिरमिटिया भारतीय मजदूरोंके मालिकोंकी स्वर्ण-बुभुक्षाके शिकार हो रहे हैं, दक्षिण आफ्रिकामें रहनेवाले प्रत्येक भारतीयका सीधा-सादा और बुनियादी कर्तव्य है।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २४-९-१९१३