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१३९. तीन-पौंडी कर

अनेक कारणोंसे हम इस रक्त-करको ही इस लड़ाईका केन्द्र-बिन्दु समझते हैं, और तीन-पौंडी करको इस नामसे पुकारने में हमें कोई हिचकिचाहट नहीं हुई। यह कभी लगाया ही नहीं जाना चाहिए था। इस करका इतिहास नेटालके लिए कोई श्रेयकी बात नहीं है। अगर हम नेटालके स्वतन्त्र भारतीय अधिवासियोंने उस समय अपने कर्तव्यका पूरा निर्वाह किया होता तो यह कर कभी न लगता। यदि नेटालके राजनयिक, जिनके हाथों में उस समय सत्ता थी और जो दूसरी बातोंमें खासे-अच्छे थे, बागानमालिकों और भूस्वामियोंके प्रभावमें न आ गये होते तो भी यह कर न लग पाता। यहाँ यह याद दिला देना शायद उचित होगा कि मूलतः तो तत्कालीन सरकारका इरादा गिरमिट-मुक्त भारतीयोंपर २५ पौंडका वार्षिक कर लगाने और उसकी गैरअदायगीको दण्डनीय अपराध ठहरानेका था। यद्यपि भारत सरकारका रुख काफी नरम था और वह बहुत हदतक स्थानीय सरकारकी बातें माननेको तैयार भी थी, फिर भी उसने इस कर-राशिको बहुत अधिक माना। निदान उसे घटाकर ३ पौंड कर दिया गया; और इसकी गैर-अदायगीको दण्डनीय अपराध ठहरानेके प्रस्तावको तो भारतसरकार सुननेके लिए ही तैयार नहीं थी। इसलिए १८९५ में उक्त कर, एक विधेयक पास करके, लगा दिया गया, और शर्त यह रखी गई कि यदि गिरमिट-मुक्त भारतीय अपने गिरमिटकी अवधि समाप्त हो जानेपर भारत लौट आता है या पुनः गिरमिटमें बँध जाता है तो वह इस करसे मुक्त रहेगा, किन्तु यदि वह इन दो बातों में से एक भी नहीं करता और नेटालमें स्वतंत्र व्यक्तिके रूपमें बसना चाहता है तो उसे तथा उसके कुटुम्बको कर देना पड़ेगा और यह कर सरसरी अदालती कार्रवाईसे वसूल कर लिया जायेगा। इसकी पहली वसूली सन् १९०० में शुरू हुई और तबसे स्त्री-पुरुष तथा बच्चे सबको, कमोवेश कठोरताके साथ, अपनी स्वतन्त्रताके बदले यह घृणित दण्ड चुकानेके लिए परेशान किया जाता रहा है। हम इसे दण्ड ही कहेंगे, क्योंकि मानी हुई बात है कि यह कोई राजस्व-उत्पादक कर नहीं है। इसका स्पष्ट उद्देश्य उन असहाय लोगोंको, जो दलालोंके बेहूदा प्रलोभनोंपर भुखमरीसे बचने के लिए भारतसे यहाँ आये हैं, पुनः गिरमिटमें बंधने अथवा स्वदेश लौट जानको विवश करना है। यद्यपि नेटाल और भारतकी सरकारोंके बीच यह समझौता था कि उस करकी गैर-अदायगी कोई दण्डनीय अपराध नहीं मानी जायेगी, विधि-अधिकारियोंने यह युक्ति ढूंढ़ना शुरू किया कि किस प्रकार इन लोगोंको जेल भेजा जा सकता है, और उन्होंने पाया कि उक्त समझौतेका अतिक्रमण करनेके लिए और कर न देनेपर इन लोगोंको जेल भेजने के लिए मजिस्ट्रेट अदालत कानून (मजिस्ट्रेट्स कोर्ट ऐक्ट) की लघु ऋण-सम्बन्धी धाराका उपयोग फलप्रद ढंगसे किया जा सकता है। अदालतके किसी आदेशकी अवज्ञा अदालतका अपमान है, जिसके लिए अवज्ञा करनेवाले व्यक्तिको जेलकी भी सजा दी जाती है। इस धारामें इस आशयका एक अपवाद है कि यदि कोई कर्जदार यह दिखा दे कि साधन-हीन होनेके कारण वह