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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


ऐसा वादा किया है।" हमारी मान्यता है कि श्री गोखलेको दिया गया वचन भारतीय समाजको दिया गया वचन है। इसलिए जबतक यह कर हटा नहीं दिया जाता, तबतक सत्याग्रह संघर्ष चलाते रहना हमारा पुनीत कर्त्तव्य है।

मौजूदा कानूनोंका प्रशासन दिन-ब-दिन कठोर होता गया है, तब फिर भारतीयोंसे चुप बैठे रहनेकी आशा कैसे की जा सकती है। पहले भारतीय पत्नियाँ बिना किसी फजीहत और ज्यादा पूछताछके प्रवेश पा जाती थीं। अब सरकारने प्रवासी-अधिकारियोंको आदेश दे रखा है कि वे उनसे अधिकसे-अधिक विश्वसनीय प्रमाण माँगे और इसपर भी हर तरहकी निरर्थक विघ्न-बाधाएँ उपस्थित की जाती है। इसका सबसे ताजा नमूना कुलसम बीबीका मामला है। समाजने भारतीय पत्नियोंको प्रवेश देनेकी प्रक्रिया में ऐसी सख्ती बरतनेका कभी कोई कारण नहीं दिया। हमपर कभी किसी आपत्तिजनक चरित्रकी स्त्रीको लानेका या हमारी स्त्रियोंके किसी [आथिक ] होड़में शामिल होनेका कोई आरोप नहीं लगाया गया है। पहले जो लोग अपना अधिवासका अधिकार सिद्ध करना चाहते थे उनसे [जमानतके तौरपर] केवल १० पौंड माँगा जाता था। किन्तु अब २५ पौंडकी अनुचित रकम जमा करनेको कहा जाता है। पहले पर्यटन-पास (विजिटिंग पास) देने में काफी उदारता बरती जाती थी, किन्तु अब उसमें भी बड़ी कंजूसी की जाने लगी है। हम ऐसे मामले जानते हैं जिनमें लड़कोंको अपने माता-पिताओंके पास जाने और व्यापारियोंको कर्जकी रकम उगाहनेके लिए अन्य प्रान्तोंमें जानेके अनुमतिपत्र नहीं दिये गये है। किसी भारतीय महाजनके लिए अपनी बकाया रकमें उगाहनेके उद्देश्यसे ट्रान्सवाल जानेका अनुमतिपत्र जारी करवा सकना सरल बात नहीं है। शासनकी प्रवृत्ति यह है कि दक्षिण आफ्रिकामें बसी हुई भारतीय आबादीके जीवनको यथा-सम्भव असह्य बनाकर उसे यहाँसे उखाड़ फेंका जाये। ट्रान्सवालमें स्वर्ण-अधिनियम और कस्बा-कानूनका तथा नेटाल और केपमें व्यापारिक परवानोंसे सम्बन्धित कानूनोंका प्रशासन बहुत ही निन्दनीय रहा है। इसलिए श्री काछलियाने इस बातपर जोर दिया है कि हमसे सम्बन्धित कानूनोंकी प्रशासन-पद्धतिमें परिवर्तन होना चाहिए।

और श्री कालिया द्वारा इच्छित सुंधार शायद तबतक सम्भव नहीं है जबतक कि सरकार तथा दक्षिण आफ्रिकावासी यूरोपीयोंका रुख अपेक्षाकृत नरम और अधिक विवेक-सम्मत नहीं हो जाता। यदि सरकारको त्योरियाँ हमपर चढ़ी ही रहीं और यूरोपीय समुदायने हमारे विनाशके उद्देश्यसे प्रस्तावोंके द्वारा हमें समस्त नागरिक सुविधाओंसे अनिवार्यतः वंचित कर देनेकी माँग जारी रखी तो इसके जवाबमें हमें भी यह दिखा देना होगा कि हम अपने सम्मान तथा दक्षिण आफ्रिकामें अपने सम्मानपूर्ण अस्तित्वके लिए मर मिटना जानते हैं। और इसके लिए हमें शरीर-बलसे नहीं जूझना है, बल्कि स्वेच्छ्या कष्ट-सहनका वह तरीका अपनाना है जो मनुष्यको निष्कलुष बनानके साथ-साथ उसे गौरव भी प्रदान करता है।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २०-९-१९१३