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समझौता न हो सका


करके हमपर उपकार ही किया है। हमें संघर्ष में जूझना है; यह संघर्ष जातिभेद रूपी उस असुरके संहारका संघर्ष है जो इस सरकार और गोरोंके शरीरमें बसा हुआ है। जातिभेदका यह राक्षस सरकारके ट्रान्सवालके स्वर्ण-कानून तथा नये प्रवासी कानूनके अमलमें )दीन-दुःखी और निराधार भारतीयोंसे तीन-पौंडी कर लेनेके दुराग्रहमें और हमारी स्त्रियोंके प्रति व्यवहारमें दृष्टिगोचर होता है। इन सबकी दवा उन सभी कानूनोंको रद करने या बदलवानेकी अपेक्षा इस राक्षसी-वृत्तिके उन्मूलनमें ही है। इस राक्षसको मार डालनेका एकमात्र मार्ग यही है कि हम स्वयं मर-मिटनेको तैयार हो जायें। मृयुमें ही जीवन निहित है। मृत्यु ही हमारा उद्धार कर सकती है। मरकर ही सही बात समझाई जा सकती है । बलिदानकी छाप ही ऐसी है कि जहाँ पड़ेगी अंकित हो उठेगी। गोरोंका तिरस्कार करने-भरसे हम उन्हें नहीं जीत सकते; और न गोरोंको मारकर ही हम जीत सकेंगे। हम उनके शरीर भले ही नष्ट करें परन्तु यदि उनमें वास करनेवाला राक्षस जीवित रहा तो वह एकसे अनेक बन जायगा। वृक्षकी डालियोंको काटनेसे तो वृक्ष और भी हरा-भरा हो उठता है, नष्ट तो वह जड़ काटने ही से होगा। ठीक उसी प्रकार गोरोंके शरीरसे हमें कोई सरोकार नहीं है। हमारा सम्बन्ध तो उनकी राक्षसीवृत्तिसे है। इस वृत्तिको पलटनेका सच्चा प्रयास ही सत्याग्रह है। ईश्वरीय नियम ही कुछ ऐसा है कि कठोरसे-कठोर मनुष्य हो, वह भी अपने दुश्मनको अकारण दुःख भोगते हुए देखकर पिघल उठता है, और ऐसा दुःख सहनेको सत्याग्रही ही तत्पर रहता है। दूसरा भी उपाय है परन्तु वह असम्भव है। गोरोंके हृदय में हमारे प्रति जो तिरस्कार-भावना है उसके लिए हम ही उत्तरदायी है। हममें अनेक दोष हैं। हम झूठ बोलते हैं, असत्य-आचरण करते है, झूठी गवाही देते हैं, गन्दे ढंगसे रहते हैं। हम सबके सब इन सारी बुरी आदतोंको छोड़ कर ही गोरोंके मनसे तिरस्कार दूर कर सकेंगे। किन्तु यह बात असम्भव है। जो भारतीय अनेक कुटेवोंसे ग्रसित हैं वे ऐसे लेख पढ़ेंगे ही नहीं। यदि कोई यह लेख पढ़कर उन्हें समझाना चाहे तो समझा भी नहीं सकेगा। सत्याग्रहीको इनके लिए भी मरना है। अज्ञानसे अन्धे हमारे ऐसे बन्धु तभी कुछ सीख पायेंगे। एककी मौतसे दूसरे सीखें, यह तो दुनियामें सदासे चला आया है। अपने बलिदानका स्वयं लाभ न उठाने में अपना कल्याण है। यह कठोर वचन मनन करने योग्य है। जीवनके सच्चे उपभोगका यह महामन्त्र है। ऐसी वृत्ति रखनेवाले सत्याग्रही ही आगामी संघर्ष में विजय पायेंगे। जो इसमें शरीक नहीं हो सकते उनसे हमारा निवेदन है कि वे इसका विरोध न करें, और अन्य जो भी सहायता बन पड़े करें। समाजके हितको ध्यानमें रखें। यदि आपसे भला न बन पड़े या उचित न बोला जाये तो मौन रहें। आप निर्बल है तो अपनी निर्बलतासे दूसरोंको निर्बल न बनायें; यह भी पारस्परिक सहयोग ही होगा। इस बारके संघर्षका कोई 'प्रोग्राम' या कार्यक्रम है ही नहीं। वह बादमें मालूम होगा। यह संघर्ष तो ऐसा है कि इसके द्वारा सरकारका मन, जो हमारे विरुद्ध है, ठीक होना चाहिए। तीन पौंडका जहरी कर तो हटाया ही जाना चाहिए। असहाय भारतीयोंका यह हमपर ऋण है। हमपर यह श्री गोखलेका भी कर्ज है।