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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


किन्तु तीव्र प्रजातिगत विद्वेषके हाथों तबाह है; और इसलिए वह अपने गौरव और सम्मानकी रक्षा त्याग और कष्ट-सहनके सिवा अन्य किसी उपायसे नहीं कर सकता।

सत्याग्रहको सरकारने शिकायतें दूर करवानेका एक वैध उपाय मान लिया है, इसलिए सरकार को यह भरोसा दिलाने की जरूरत नहीं कि समाज देशके कानूनको नहीं तोड़ना चाहता। वह उन कानूनोंके अन्तर्गत आनेवाले कर्तव्योंको, जिनका पालन वह अपनी प्रतिष्ठा और अपने आत्मसम्मानको अक्षुण्ण रखते हुए नहीं कर सकता, पूरा न करने की सजा भुगतकर उनकी सत्ताको स्वीकार करेगा।

अन्त में, मैं यह कहना चाहता हूँ कि यह संघर्ष तबतक जारी रखा जायेगा जबतक :

(१) प्रवासी अधिनियमसे प्रजातीय भेदभावका कलंक नहीं धुल जाता;

(२) इस अधिनियमके पास होने से पहले जो अधिकार वर्तमान थे, वे फिर बहाल और कायम नहीं किये जाते;

(३) भूतपूर्व गिरमिटिया पुरुषों, स्त्रियों और बच्चोंपर से तीन पौंडी कर नहीं हटा दिया जाता;

(४) दक्षिण आफ्रिकामें विवाहित स्त्रियोंका दर्जा सुरक्षित नहीं कर दिया जाता;

(५) और जबतक इस पत्रमें उल्लिखित वर्तमान कानूनोंके प्रशासनमें आम तौरपर उदारता और न्यायकी भावना व्याप्त नहीं हो जाती। साथ ही विनम्र निवेदन है कि जबतक सरकार समाजके विभिन्न प्रान्तीय नेताओंसे सलाह नहीं करती तबतक इन कानूनोंपर निविघ्न और न्यायपूर्ण अमल सम्भव नहीं है।

[आपका,]
अ० मु० काछलिया
अध्यक्ष
ब्रिटिश भारतीय संघ

[अंग्रेजीसे]
रैड डेली मेल, १५-९-१९१३

१२८. समझौता न हो सका

हमने पहले यह समाचार दिया था कि सरकार तथा श्री गांधीके बीच समझौतेकी बात चल रही है। अब हमें उक्त बातचीतके टूट जानेकी खबर देनी पड़ रही है। सत्याग्रह अब फिरसे छिड़ेगा। इसमें भी कोई ईश्वरीय रहस्य होगा। दिखाई तो यही पड़ता है कि संघर्ष में लाभ है। यदि समझौता हो जाता तो उससे केवल १९११ की शोंके शब्दोंका ही पालन होता, लेकिन उस समझौतेका उद्देश्य नष्ट हो जाता; क्योंकि उससे समझौतेके शब्दोंका पालन होता, आत्माका नहीं। यह ठीक है कि उससे दक्षिण आफ्रिका में जन्मे हुए लोगोंको केप जानेका अधिकार मिलता, शादी-विवाहके सम्बन्धमें निर्णय हो जाता, और रंगभेदका नाम भी हट जाता। परन्तु भारतीय समाजकी दृष्टि से इतना ही काफी न होता। सरकारने इस अपर्याप्त वस्तुको अस्वीकार