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पत्र : गृह-सचिवको

उसके बाद माननीय श्री गोखलेकी स्मरणीय यात्रा हुई। फिर बड़ी-बड़ी आशाएँ बँधी। स्थिति पूर्णतः स्पष्ट कर दी गई। जिम्मेदार राजनीतिज्ञोंने घोषणाएँ की जिनसे लगा कि अगले अधिवेशनमें एक सन्तोषजनक विधेयक पास कर दिया जायेगा और कुछ भूतपूर्व गिरमिटिया स्त्री-पुरुषोंपर जो अन्यायपूर्ण तथा निर्विवाद रूपसे अनुचित तीन पौंडी कर लगा हुआ था, उसे उठा लिया जायेगा। माननीय श्री गोखलेने सार्वजनिक सभाओं में घोषणा की कि उन्हें पूरा विश्वास है कि यह कर स्त्री और पुरुष दोनोंपर से हटा दिया जायेगा।

किन्तु पिछले अधिवेशनसे तमाम आशाओंपर पानी फिर गया। प्रवासी विधेयकके मसविदेमें १९११ के समझौतेकी लगभग सभी शर्ते तोड़ दी गई और यह स्पष्ट हो गया कि भारतीय समाजको सरकारसे कोई आशा नहीं रखनी चाहिए। यदि उससे बनता तो वह विधेयकको ज्योंका-त्यों पास करा लेती। किन्तु संसदके दोनों सदनों में सभी वर्गों द्वारा इसका अप्रत्याशित विरोध किया गया और इसीलिए अधिनियम मूल विधेयककी अपेक्षा अधिक अच्छा है। सरकारने प्रयत्न किया कि तीन पौंडी कर केवल स्त्रियोंपर से उठाया जाये; इससे यह भी स्पष्ट हो गया कि वह किसी भी तरह उसे पुरुषोंपर से हटानेके लिए तैयार नहीं है।

सरकारकी शत्रुतापूर्ण भावनाके इन निराशाजनक लक्षणोंके बावजूद श्री गांधीको पुनः समझौता-वार्ता प्रारम्भ करनेका अधिकार दिया गया। और जो प्रस्ताव रखे गये वे यदि स्वीकार कर लिये जाते तो सन् १९११ के उक्त अस्थायी समझौतेकी शर्ते केवल शाब्दिक रूपमें पूरी हो गई होतीं। समाजने सोचा था कि यदि ऐसा समझौता भी हो जाता है तो भयंकर सत्याग्रह टल जायेगा; और फिर सरकारका ध्यान अन्य शिकायतोंकी ओर खींचनेके लिए ऐसे उपायोंका सहारा लिया जा सकता है जिनके कारण व्यक्तियों और समाजको अधिक कष्ट न उठाना पड़े।

किन्तु सरकार तो कुछ और ही सोच रही थी। उसने श्री गांधीके अधिकांश प्रस्ताव नामंजूर कर दिये; इतना ही नहीं, वह नेटालमें नये अधिनियमके सख्त अमल और अधिनियमके अन्तर्गत पास गये विनियमोंसे, जिनमें से कुछ कठोर और अन्यायपूर्ण है, यह भी जाहिर किये दे रही है कि वह केवल नये प्रवासियोंका प्रवेश ही नहीं रोकना चाहती, बल्कि जिन्हें नय अधिनियमके बननेसे पहले पुनः प्रवेश करने में कोई कठिनाई नहीं होती थी उन अधिवासी निवासियोंको भी नहीं आने देना चाहती। वह सम्बन्धित प्रान्तोंमें अधिवासी भारतीयोंकी पत्नियोंके प्रवेश करने में भी बाधाएँ डाल रही है।

इन स्थितियोंमें, अब समाजके सम्मुख फिर सत्याग्रह आरम्भ करनेके अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं रह गया है। यह सत्याग्रह अब स्वभावतः केवल इस प्रान्त तक ही सीमित नहीं रहेगा; और इस अवसरपर इसमें स्त्री और पुरुष दोनों ही भाग लेंगे। समाजके नेता इस मामलेमें अपना उत्तरदायित्व पूरी तरह समझते हैं। वे यह भी जानते हैं कि उनको और उनके देशवासियोंको कितना कष्ट उठाना पड़ेगा। किन्तु उन्हें ऐसा लगता है कि उनका समाज एक प्रतिनिधित्वहीन समाज है और उसकी कोई सुनवाई नहीं होती; उसे अतीतमें बहुत गलत समझा गया है। वह एक विचित्र