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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


अपने विशेषाधिकारका उपयोग करके उस विधेयकको अस्वीकृत कर दिया, किन्तु उत्तरदायी सरकारने लगभग आते ही उसे अधिनियमका रूप देकर पास कर डाला। इस कानूनका नाम १९०७ का अधिनियम २ हुआ। इस कानूनको भारतीय समाजने अपमानजनक माना; यह कानून जिन परिस्थितियोंमें पास किया गया उनसे ऐसा आभास होता था कि ट्रान्सवालमें भारतीयोंके सम्मानपूर्ण जीवनके प्रति जानबूझकर शत्रुतापूर्ण नीति अपनाई जा रही है। इसलिए मेरे देशवासियोंने १९०६ के सितम्बर महीने में शपथपूर्वक सत्याग्रहका रास्ता अपनानेका निश्चय किया। सभी जानते हैं कि संघर्षमें मेरे ३,५०० देशभाई जेल गये, १०० से अधिक निर्वासित करके भारत भेज दिये गये और दो को तो इस संकट-कालमें जो यातनाएँ सहनी पड़ी उनके कारण उन्हें अपने प्राणोंसे भी हाथ धोना पड़ा। कितने ही परिवार बेघरबार हो गये और उनकी जीविकाके लिए सार्वजनिक चन्देका सहारा लेना पड़ा। तब सन् १९११ का अस्थायी समझौता आया। भारतीयोंको लगा कि अब उन सारी चीजों के मिलनेकी आशा तो की जा सकती है जिनके लिए वे कष्ट सहते रहे हैं, साथ ही इस समझौतेसे उनके प्रति मैत्रीकी एक ऐसी भावनाका आभास भी मिलता है कि जब भारतीय प्रवासियोंपर लगभग पूरी रोक लग ही गई है तो, यहाँ आबाद भारतीयोंकी स्थिति वैसी डांवाडोल नहीं रहेगी जैसी आजतक रही है, और यह आशा भी की जा सकती है कि धीरे-धीरे उनका दर्जा ऊपर उठेगा और दक्षिण आफ्रिकामें जिस नई राष्ट्रीयताका निर्माण हो रहा है उसके वे कभी स्थायी अंग बन सकेंगे। इसके अतिरिक्त संघके प्रतिष्ठित हो जानेसे भी उसे कुछ आशा बँधी; यद्यपि इससे उसके मनमें काफी आशंका भी उत्पन्न हुई और सत्याग्रहियोंपर तो केवल ट्रान्सवालकी जिम्मेदारीके बजाय समस्त संघकी जिम्मेदारी आ पड़ी।

किन्तु जल्दी ही समाजका भ्रम दूर हो गया। उन वर्तमान कानूनोंका प्रशासन लगातार कठोर होता चला गया जिनका भारतीय समाजसे विशेष सम्बन्ध था। केप परवाना अधिनियम, नेटाल परवाना अधिनियम, ट्रान्सवालके स्वर्ण-कानून और कस्बा-कानून तथा प्रान्तोंके वर्तमान प्रवासी कानूनोंका अमल जितनी सख्तीसे पहले कभी नहीं हुआ, किया जाने लगा। जो भावना “ उत्तरी" भावनाके नामसे मशहूर है, वह नेटाल और केपके प्रशासनमें भी खुलकर खेलने लगी। इस प्रकार समझौतेके होते न होते उसकी आत्मापर पदाघात किया जाने लगा।

फिर सन् १९१२ के विधेयकसे, जो पास नहीं किया गया, यह प्रकट हुआ कि आत्मा तो आत्मा, अब शब्दोंका भी उल्लंघन होगा। मूल मसविदेमें गम्भीर दोष थे और वह समझौतेके दोनों सिद्धान्तों- अर्थात् प्रजातिगत प्रतिबन्धोंका हटाया जाना और संघ- भरमें भारतीयोंके वर्तमान अधिकारोंकी रक्षा-के विरुद्ध जाता था। मैं इतना अवश्य स्वीकार करना चाहता हूँ कि इन दोषोंकी ओर ध्यान दिलाते ही मन्त्री महोदय आपत्तिजनक धाराओंको नया रूप देनेके लिए राजी हो गये थे। किन्तु वह विधेयक अस्वीकृत हो गया और भारतीय समाजको यह नया आश्वासन दिया गया कि समझौते- पर अमल किया जायेगा।

१. खण्ड ५, पृष्ठ ४३४ ।