पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 12.pdf/२१३

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७७
पत्र : गृह-सचिवको

प्रवासी अधिकारियोंकी अपील-निकायोंके सदस्योंके रूपमें नियुक्तिके सम्बन्धमें कहना यह है कि यद्यपि ये अधिकारी आरम्भिक अवस्थामे अलग-अलग मामलोंको स्वयं तय नहीं करेंगे, फिर भी उन्हें निकायोंमें लेनेपर गम्भीर आपत्ति उठाई जा सकती है। सरकारके निर्देशोंके अनुसार अधिनियमके प्रशासनके लिए ये अधिकारी सरकारके प्रति उत्तरदायी है और मेरी समितिका खयाल है कि अपने अधीनस्थ कर्मचारियोंको भी वे ही निर्देश देंगे। इसलिए ये ऐसे निष्पक्ष न्यायाधीश तो नहीं माने जा सकते जो अपने सम्मुख प्रस्तुत मामलोंके सम्बन्धमें पहलेसे कोई धारणा बनाये बिना उनपर विचार कर रहे हों। अतः मेरी समितिका आग्रहपूर्वक अनुरोध है कि इन अधिकारियोंकी नियुक्तियाँ रद कर दी जायें, जिससे इन अपील-निकायोंकी कार्यवाही में दिलचस्पी रखनेवाले लोगोंके मनमें इतमीनान पैदा हो सके और उनके निर्णयोंमें उनका विश्वास जम सके।

आपका
अध्यक्ष,
जरथुस्ती अंजुमन

टाइपकी हुई दफ्तरी अंग्रेजी प्रति (एस० एन० ५८५८) की फोटो-नकलसे।

१२७. पत्र : गृह-सचिवको

[जोहानिसबर्ग
सितम्बर १२, १९१३]

महोदय,

माननीय मन्त्री महोदय की जानकारीके लिए ब्रिटिश भारतीय संघकी ओरसे मुझे यह निवेदन करना है कि आपका श्री गांधीके नाम भेजा ९ सितम्बरका तार पढ़ने के बाद संघने अत्यन्त अनिच्छापूर्वक और खेदके साथ फिर सत्याग्रह आरम्भ करनेका निर्णय किया है। इसका कारण यह है कि श्री गांधीने आपको भेजे अपने पत्रमें, जिसे मेरे संघने भी देखा है, जो मुद्दे रखे थे उन्हें सरकार या तो मान नहीं सकती या मानना नहीं चाहती।

जिस समाजका प्रतिनिधित्व मेरा संघ करता है, दुर्भाग्यसे उस समाजके सामने जो परिस्थिति आ खड़ी हुई है, मैं संक्षेपमें उस परिस्थितिको स्पष्ट करना चाहता हूँ।

निश्चय ही अंग्रेजोंका आधिपत्य होने के बादसे इस प्रान्तमें रहनेवाले भारतीयोंकी स्थिति गणतन्त्री शासनके दिनों में जैसी थी उससे भी बदतर होती चली गई है। इस स्थितिकी चरम-परिणति हुई सन् १९०६ में प्रस्तुत किये गये विधेयकके रूप में। उस विधेयकमें अन्धकारपूर्ण अतीतका सार तो पड़ा था ही, उससे यह आभास भी मिलता था कि भविष्य भी अन्धकारमय हो जायेगा। और यद्यपि साम्राज्य सरकारने

१. यह २०-९-१९१३ के इंडियन ओपिनियनमें " भारतीयों की माँगें" शीर्षकसे छपा था

२. देखिए “ पत्र: गृह-सचिवको", पा० टि० १, पृष्ठ १६८ ।

१२-१२