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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


नहीं होगी। वह आज भी मेरी स्मृतिमें उतनी ही ताजी है जितनी कि उस महान संध्यामें- -- जब मैं ऐसे लोगोंसे घिरा था जो मेरे लिए अपरिचित नहीं रह गये थे वह मेरे प्राणोंको सांत्वनाप्रद लगी थी। रातमें, चाहे १२ बजे हों, चाहे १ या २, मैं अक्सर श्री डोकको जानबूझकर खुले छोड़ दिये गये दरवाजेमें से झाँकते देखता। वे इस प्रकार बीच-बीच में यह देखनेके लिए झाँक लेते थे कि मुझे कोई कष्ट तो नहीं है या मुझे किसी वस्तुकी आवश्यकता तो नहीं है। यद्यपि उस परिवारके लिए मैं अजनबी था और मैंने उसकी कभी कोई सेवा नहीं की थी फिर भी समस्त परिवार मुझे खिलाने-पिलाने, मेरी शुश्रूषा करने, मुझे सांत्वना देनेके लिए मेरी सेवा में तत्पर रहता था।

श्री गांधीने आगे फिर कहा कि मुझे निश्चय ही इस बातपर गर्व है कि मुझे श्री डोक-जैसा मित्र प्राप्त था। श्री डोक ऐसे लोगोंकी सहायताके लिए बराबर तत्पर रहते थे जिन्हें उनकी सहायताको आवश्यकता होती थी। और जिन्हें उनकी सहायताकी आवश्यकता थी उन्हें श्री डोकके पास नहीं जाना पड़ता था, बल्कि स्वयं श्री डोक ही उनके पास पहुँच जाते थे। वक्ताने यह भी कहा कि श्री डोककी अपने धर्ममें गहरी आस्था थी और उन्होंने मुझे ईसाई बनानेका प्रयत्न भी किया। मैंने उनसे कहा कि एक हिन्दूके रूपमें मेरा विश्वास यह है कि ईसाइयतका पूरा रूप तभी देखनेको मिल सकता है जब उसकी व्याख्या हिन्दुत्वके प्रकाशमें और उसकी सहायतासे की जाये। किन्तु, श्री डोकको इससे सन्तोष नहीं हुआ। वे सत्यको जिस रूपमें पहचानते थे और जिससे उन्हें तथा उनके परिवारको इतनी आन्तरिक शान्ति मिलती थी, वे उसको मेरे मनमें उतारनेका कोई अवसर नहीं चूकते थे। श्री डोकको ईसाइयत आधुनिक सभ्यताके दोषोंसे युक्त ईसाइयत न थी। वे मूल ईसाइयतपर आचरण करते थे। वे जिस बातका प्रचार करते थे उसपर स्वयं आचरण भी करते थे। मेरा खयाल है कि वे प्राचीन कालके बलिदानी वीरोंको भाँति अपने विश्वासोंके लिए टिकटीसे बांधकर जीवित जला दिया जाना भी पसन्द करते। हम जिस बन्धनसे एक सूत्र में बंधे हुए थे वह था ईसा मसीहके बुराईका प्रतिरोध न करनेके सिद्धान्तमें हमारा समान विश्वास। आजकल तो यह सिद्धान्त अनेक अपवादोंके बोझसे दबा हुआ है। श्री डोकके विचारमें घृणाको जीतनेका मार्ग प्रेम था और बुराईको जीतनेका रास्ता अपने आचरणमें अच्छाईको अधिकसे-अधिक उतारना था। मेरी यह कामना है कि श्री डोकके गुण उनके बच्चोंमें भी आयें और उनकी पत्नीको इस विचारसे सहारा और सांत्वना मिले कि उनके पति ऐसे उदारचेता व्यक्ति थे जिनको स्मृतिमें आज इतने लोग और इतनी प्रजातियाँ श्रद्धावनत हैं।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, ३०-८-१९१३